छ्न्द-आल्हा (अर्ध सम मात्रिक)
डोर रिश्तों की लगी ढीली. टूटती जब भी पड़े भार।
इसमें भरी स्वार्थ गांठे. मीठी वाणी भर दे प्यार।।१
वचपन से जाना छोटू सा , अब लगा सियाने हो गए,
क्रोध में दूर होकर तके. जो गाली पड़ती सी हार।।२
हाथ पकड़ वो संग बुलाये, फिर सुना घर का समाचार ,
अब कम मिलने की आदत से, दूर दिखे से पीठ निहार।।३
अब तो यही लगता सही बस, मतलब का ही है संसार ।
फिर मैं निकल गई कदमों ले , मस्ती में खो पंख पसार।।४
अब कम मिलने की आदत से, मिले इंटरनैट बन तार
अब तो साथ भी नहीं पाता ,इसलिए खोया सगा कार।।५
अपनों से पहले मिलों बोल ,तभी अंत हो ये सब दौर ।
तभी समझ आये ये रिश्ते , मनभावन सा यह आसार ।।६
— रेखा मोहन