अनदेखी ही अनदेखी
वे कुशवाहा (कोईरी) जाति से थे ! उनके पिता का नाम सौमेश्वर सिंह था, जो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक सूबेदार के रूप कार्यरत थे, साथ ही हॉकी भी खेला करते थे। बार-बार के ट्रांसफर के कारण ध्यानचंद के पिता उत्तरप्रदेश के झाँसी में जा बसे थे, हालांकि ध्यानचंद का जन्म इलाहाबाद में हुआ था! ध्यानचंद को हॉकी खेलने के लिए प्रेरित करने का श्रेय उनके पिता सहित ‘ब्राह्मण रेजीमेंट’ के एक सूबेदार तिवारी जी को है। मेजर तिवारी स्वयं भी प्रेमी और खिलाड़ी थे। भारतरत्न पाने के ‘खेल’ में पराजित हॉकी-जादूगर ! ब्रिटिश भारत की सेना में लांसनायक ध्यानचंद ‘महतो’! (जन्म : 29 अगस्त 1905 – मृत्यु : 3 दिसंबर 1979) फील्ड हॉकी के महानतम खिलाड़ी तथा कप्तान थे। वर्ल्ड हॉकी के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में उनकी गिनती होती है । उनके महानतम गोलों के बदौलत 1928 के एम्स्टर्डम, 1932 के लॉस एंजेल्स, 1936 के बर्लिन ओलंपिक में लगातार तीन बार गोल्ड मेडल जीते! उनके कृतित्व के कारण उनकी जन्मतिथि को देश में ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनके अनुज ‘रूप सिंह’ और पुत्र ‘अशोक कुमार’ भी हॉकी खिलाड़ी और ओलंपियन रहे हैं !
उन्होंने अपने खेल-जीवन में सभी तरह की हॉकी में 1,000 से अधिक गोल किये, जबकि अंतर्राष्ट्रीय हॉकी में 400 से अधिक गोल किये । वह जब मैदान में खेलने उतरते थे, तो गेंद उनकी हॉकी स्टिक से चिपक जाती थी।
सन 1927 ई. में इसे लांस नायक बना दिए गए। सन 1932 ई. में लॉस ऐंजल्स जाने पर नायक नियुक्त हुए। सन 1937 ई. में जब भारतीय हाकी दल के कप्तान थे, तो उन्हें सूबेदार बना दिया गया। जब द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ, तो सन 1943 ई. में ‘लेफ्टिनेंट’ नियुक्त हुए और भारत के स्वतंत्र होने पर सन 1948 ई. में कप्तान बना दिए गए। केवल हॉकी के खेल के कारण ही सेना में उनकी पदोन्नति होती गई। 1938 में उन्हें ‘वायसराय का कमीशन’ मिला और वे सूबेदार बन गए। उसके बाद एक के बाद एक दूसरेपद प्राप्त करते हुए सूबेदार, लेफ्टीनेंट और कैप्टन बनते चले गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया।
ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है और दोनों से उनकी मुलाकात भी हुई । हॉकी गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती थी कि वह कहीं न कहीं जादुई स्टिक से खेल तो नहीं रहे हैं! यहाँ तक नीदरलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी, उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई।
ध्यानचंद की हॉकी की जादूगरी के जितने किस्से हैं, उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। उनकी हॉकी की जादूगरी देखकर इस खेल के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे, बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुध-बुध खोकर उनकी जादूगरी देखने में मशगूल हो जाते थे! हॉकी खेलने की जादुई कलाकारी के कारण ही जर्मनी के तानाशाह रुडोल्फ हिटलर ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी और वहाँ की सेना में सबसे बड़ा पद देने का ऑफर क्या, लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा ही अपने देश के लिए खेलना ही मातृभूमि की सेवा माना ।
वियना में ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए एक मूर्ति लगाई, जो यह दिखाता है कि ध्यानचंद कितने महानतम खिलाड़ी थे! उन्हें ‘भारतरत्न’ मिले या नहीं मिले, चूंकि हमने दोनों तरह की (कांग्रेस और भाजपा) सरकारों को देख लिया, किन्तु वे तो पहले से ही देशरत्न हैं।