टोनिजिबल हिंदी के मुंशी
एक स्कूल इंस्पेक्टर की जयंती !
क्या प्रेमचंद कायर थे ? नवाब की राय नहीं बनी, धनपत की राय नहीं बनी, तो प्रेम का मुंशी (चंड) बन गए !
यह सच है, प्रेमचंद कथा सम्राट थे, तो उपन्यास सम्राट भी ! यह भी सच है, इस पोपले गालवाले शख़्स ने हिंदी ही नहीं, सम्पूर्ण संसार को ‘गोदान’ दिया, तो 350 से अधिक कहानियां भी । वे अंग्रेजों से भागते फिरे, छद्मता ऐसी की कभी धराये नहीं और जेल नहीं गए ।
स्कूल में दादागिरी पद (इंस्पेक्टर) में भी रहे । जो भी हो, सामंत के इस मुंशी ने आजीवन फकीरी में गुजारे और तीन शादियाँ की ! वे न प्रो. मेहता बन सके, न ही होरी ही ! मेहता और होरी के बीच झूलते रह गए…. मालती पाने की लालसा में धनिया में अटक गए!
वहीं 2018 में ‘समान कार्य के समान वेतन’ को लेकर पटना हाईकोर्ट से जीती केस को चुनौती दे बैठे सुप्रीम कोर्ट में, बिहार की सरकार ने । बिहार के कई शिक्षक संघों ने बिहार सरकार के इस कुकृत्य को लगे हाथ स्वीकारे ! एक ही विद्यालय में कई तरह के शिक्षक- यह बंटवारे बिहार सरकार की देन है, इनमें एक शिक्षक 1लाख पाते हैं, तो दूजे 25,000; जबकि दोनों के कार्य समान है, जबकि एक आदेशपाल का वेतन उसी विद्यालय में 40,000–50,000 है।
बाघ-बकरी एक घाट में ! घाट (सुप्रीम कोर्ट) एतदर्थ बेड़ापार करेंगे ! सभी नियोजित शिक्षक-बहनों एवं भाइयों को शुभकामनाएं!
फिर वही कहना कि एक व्यक्ति जिनका नाम ‘नवाब’ रहा, ‘धनपत’ रहा, परंतु ताज़िन्दगी कष्टों, अभावों में जीते रहे, किन्तु ‘प्रेम’ बाँचते रहे….. दर्जनों उपन्यास, 300 से ऊपर कहानियां, थोड़े लेख और कविताएं भी, बावजूद उन्हें किन कारणों से मुंशी कहा जाता रहा…. पता नहीं, लेकिन जो भी कारण रहे हों, वे आज के टोनिजिबल हिंदी के ‘मुंशी’ अवश्य रहे।
गुलाम भारत में जन्म लेकर और अंग्रेजों के भय और डाँट से ‘नवाब’ और ‘धनपत’ से दूर हो गए, फिर अपने वतन को सोज़ नहीं पाए… अंग्रेजी सत्ता में इस भारतीय लेखक का जेल नहीं जाना कइयों को यह सालता है कि ये अंग्रेजों के पिट्ठू तो नहीं थे ! …किन्तु वे सवर्ण कायस्थ होकर गरीब मज़दूर थे, तभी तो उन्होंने लिखा- “जिसदिन मैं ना लिखूँ, उसदिन मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं है ।” 31 जुलाई यानी प्रेमचंद की जयंती है। प्रेमचंद में बसनेवालों को स्निग्धीय शुभकामनाएं !