ग़ज़ल
रहनुमा बनके जो मंज़िल का पता देते हैं
राह काँटों भरी वो मुझको दिखा देते हैं
कैसे कर लूँ मैं यकीं उनकी सदाकत पे अब
कितने किरदार बदल के वो दग़ा देते हैं
मेरी चाहत का असर उन पे कहाँ होता है
वो तो हर बात पे मुझको ही रुला देते हैं
मेरे जज़्बात को दर्या- सी रवानी देकर
बेक़रारी मेरी अक्सर ही बढ़ा देते हैं
अपनी ही बात पे रहते न वो क़ायम अब तो
मेरी हर बात धुएँ में वो उड़ा देते हैं
है मुझे नाज़ मुहब्बत का गुहर हासिल है ,
जिसको पाने में कई उम्र बिता देते हैं
है ‘किरण’ साथ तुम्हारे ये ज़माना सारा
जब भी आँखें हुईं नम लोग हँसा देते हैं