ग़ज़ल
आदमी से आदमी जलता रहा।
पेट के भीतर जहर पलता रहा।।
‘मैं बड़ा हूँ रंग मेरा गौर है ‘,
अघ-विकारों से स्वयं छलता रहा।
जातियों में बाँट कर खंडन किया,
नफ़रतों का बीज ही फलता रहा।
पढ़ लिए हैं शास्त्र ज्ञानी भी बड़ा,
किंतु सूरज-चाँद-सा ढलता रहा।
यौनि- पथ तो एक है सबके लिए,
अंत सबका एक ही जलता रहा।
आपसी मन – भेद में बरबाद है,
नित अहं के पात्र में ढलता रहा।
भेद तो चौपाल तक ही जा थमा,
लाल लोहू दलित का भरता रहा।
नाश के लक्षण दिखाई दे रहे,
आत्मा की लाश पर चलता रहा।
दे दुहाई ग्रंथ की, करता नहीं,
रूढ़ियों को फाड़कर सिलता रहा।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’