जीवन की सार्थकता
जीवन की सार्थकता
मुकेश बहुत उदास से कमरे में बैठे थे। उन्हें लग रहा था कि जैसे उनका जीवन ही व्यर्थ हो गया।
उनके पास धन दौलत अधिक नहीं थी। प्रोफेसर के रूप में जो कमाते थे उसमें से एक हिस्सा समाजिक कल्याण के लिए रहता था। कॉलेज के होनहार छात्रों को मुफ्त में ट्यूशन देते थे। किसी को पैसों की ज़रूरत हो तो पीछे नहीं हटते थे।
उनके छात्र उनकी बहुत इज्ज़त करते थे। उनके पढ़ाए हुए शिष्य कई ऊँचे ओहदों पर थे।
लेकिन आज उनका बेटा धोखाधड़ी के इल्ज़ाम में पुलिस की हिरासत में था। उनसे छुपाकर ना जाने क्या क्या किया करता था। उन्होंने कई बार पूछा कि वह क्या करता है तो बात को घुमाकर टाल देता था।
उन्हें लग रहा था कि इतने बच्चों को सही रास्ता दिखाने वाले वह अपने बच्चे को भटकने से नहीं बचा पाए। यही बात उन्हें परेशान कर रही थी। वह सोच रहे थे कि शायद उसकी माँ जीवित होती तो ऐसा ना होता।
उनके मित्र कैलाश कमरे में आए। बत्ती जलाकर उनके सामने बैठ गए। उन्होंने कहा,
“अंधेरे में क्यों बैठे हो ?”
“मेरे चिराग तले अंधेरा निकला उसका अफसोस कर रहा था।”
कैलाश उनकी मनोदशा को समझकर बोले,
“मैंने देखा है कि तुमने रवींद्र को सही रास्ता दिखाने में कोई कमी नहीं रखी। पर हम राह दिखा सकते हैं। किसी को उस पर चला नहीं सकते हैं। सही गलत का चुनाव हमें अपने विवेक से करना पड़ता है। रवींद्र ने जो चुना उसके दोषी तुम नहीं हो।”
अपने दोस्त की बात सुनकर मुकेश को तसल्ली हुई।