पृथिवी सहित समस्त सृष्टि को परमात्मा ने जीवात्माओं के लिये बनाया है
ओ३म्
हमारा यह संसार अर्थात् हमारी पृथिवी, सूर्य, चन्द्र आदि सब ग्रह-उपग्रह प्रकृति नामक अनादि सत्ता से बने हैं। प्रकृति की संसार में चेतन ईश्वर व जीवात्मा से भिन्न स्वतन्त्र जड़ सत्ता है। इस अनादि प्रकृति को परमात्मा व अन्य किसी सत्ता ने नहीं बनाया है। इस प्रकृति का अस्तित्व स्वयंभू और अपने आप है। प्रकृति की ही तरह संसार में ईश्वर व जीव भी दो इतर सत्य एवं चेतन पदार्थ है। ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप है। यह तीनों पदार्थ अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी हैं। ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म सत्ता है। जीवात्मायें तथा प्रकृति भी सूक्ष्म सत्तायें हैं परन्तु प्रकृति से सूक्ष्म जीव तथा जीव से भी सूक्ष्मतर परमेश्वर है। परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी सत्ता है। जीवात्मा का स्वरूप सत्य, चित्त, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण धर्मा, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वर के आधीन व परतन्त्र है। ईश्वर संख्या में एक है तथा जीवात्मायें संख्या में अनन्त हैं। मनुष्य जीवों की संख्या को नहीं जान सकता इसलिय जीवों की संख्या को अनन्त कहा जाता है। ईश्वर जानता है कि जीवों की संख्या कितनी है और वह सब जीवों को उनके कर्मों के अनुसार जन्म व मरण तथा सुख व दुःख आदि प्रदान करता है। सुख व दुःख प्रदान करने में परमात्मा एक सच्चे न्यायाधीश का कार्य करता है। वह किसी जीव से पक्षपात नहीं करता। किसी भी जीव के पाप कर्मों को क्षमा नहीं करता। प्रत्येक जीव को अपने अपने कर्मानुसार जन्म लेना पड़ता है तथा अपने कर्मो का फल भोगना पड़ता है। यदि ईश्वर न होता और वह सृष्टि की उत्पत्ति व इसके पालन सहित जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करते हुए जन्म व मरण की व्यवस्था न करता तो जीवों को शुभ करने का अवसर और उससे मिलने वाले सुख व आनन्द की प्राप्ति कदापि न होती। इस महान कार्य के लिये सभी जीव ईश्वर के प्रति एक विधाता, पिता व आचार्य के समान कृतज्ञ होते हैं और उसका नित्य प्रति ध्यान करना, उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना उनका कर्तव्य होता है।
हम अपनी आंखों से जिस संसार व इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह व उपग्रहों सहित तारों आदि को देखते हैं, पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल, आकाश तथा समुद्र, नदी, झरने, पर्वत, रेगिस्तान, मनुष्य, पशु व पक्षी आदि प्राणियों, वृक्षों, वनस्पतियों आदि को देखते हैं, इन सबको भी परमात्मा ने ही बनाया है। यह पदार्थ अपौरुषेय कहलाते हैं अर्थात् इनकी रचना व उत्पत्ति मनुष्यों के द्वारा नहीं हो सकती। इनकी रचना व उत्पत्ति सब मनुष्यों से महान सत्ता परमात्मा द्वारा होती है। जो कार्य मनुष्य नहीं कर सकता परन्तु सृष्टि में वह हमें दृष्टिगोचर होता है, वह अपौरुषेय रचनायें कहलाती हैं जिनकी रचना व पालन परमात्मा के द्वारा किया जाता है। हमारी इस सृष्टि को बने हुए 1 अरब 96 करोड़ वर्ष हो चुके हैं। अभी 2 अरब 36 करोड़ वर्षों का समय इस सृष्टि का भोग व इसका अस्तित्व बना रहने का काल है। इसके बाद इसकी प्रलय होगी। सृष्टि की प्रलय भी परमात्मा के द्वारा होती है। सृष्टि का काल दिन के समान तथा प्रलय का काल रात्रि के समान होता है। इसे ईश्वर का एक दिन भी कहा जाता है। सृष्टि रचना व सृष्टि संवत् विषयक गणनायें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होती हैं जो हमारे प्राचीन ऋषियों महर्षियों के अनुसधानों का परिणाम है। उनके सभी सिद्धान्त भी सृष्टि में ठीक-ठीक घट रहे हैं। सभी ऋषि सृष्टि रचना आदि कार्यों के द्रष्टा व इसे यथार्थ रूप में जानने वाले होते थे। यह ज्ञान उन्हें वेदों के स्वाध्याय तथा योग, ध्यान व समाधि आदि को सिद्ध करने पर प्राप्त होता था। अतः किसी भी व्यक्ति को वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों में शंका नहीं करनी चाहिये। वेद परमात्मा से उत्पन्न व परमात्मा प्रदत्त ज्ञान हैं जिसे परमात्मा ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को उनमें सर्वान्तर्यामी स्वरूप से उपस्थित होने से उनकी आत्माओं में प्रेरणा करके प्रदान किया था। सृष्टि के आरम्भ से ही वेद मानवजाति को उपलब्ध रहे हैं। वेदों का अध्ययन व स्वाध्याय करना तथा उसकी शिक्षाओं के अनुसार आचरण करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य व परमधर्म होता है। जो इस शिक्षा का पालन करते हैं वह जीवन में उन्नति करते हुए सुखों को प्राप्त करते हैं तथा परजन्म में भी उन्हें ईश्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होते हैं। अतः सबको वेदों की शरण लेकर सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर व अपने अपने कर्तव्यों वा धर्म का पालन करते हुए अपने जीवन की उन्नति व सुखों की प्राप्ति करनी चाहिये।
परमात्मा ने पृथिवी आदि सृष्टि क्यों बनाई? इसके अनेक कारण हैं। इसका एक कारण तो परमात्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि, नित्य, निराकार, सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सृष्टिकर्ता होना है। परमात्मा सृष्टि बना सकता है, बनाना जानता है, इस सृष्टि से पूर्व अनन्त बार ऐसी ही सृष्टि को बनाया है, जीवों को मनुष्य व इतर यानियों में जन्म व मरण धारण करने के लिये इस सृष्टि की आवश्यकता भी है, तो परमात्मा सृष्टि को क्यों न बनाता? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता। मनुष्य इस विषय में तरह तरह की शंकायें कर सकता है जिसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में दिया है। सृष्टि रचना पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने सांख्य दर्शन के सूत्रों को उद्धृत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। वह सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में लिखते हैं कि (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता इन तीन वस्तुओं से मिलकर जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। उस से महतत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उससे पांच तनमात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव तथा (छब्बीसवां) परमेश्वर है। इन सब विकारों में प्रकृति अविकारिणी है और महत्तत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति के विकार हैं। प्रकृति इस कार्य जगत का उपादान कारण है। यह मूल अनादि तत्व प्रकृति किसी अन्य पदार्थ का कार्य नहीं हैं। जीव व ईश्वर भी किसी मूल पदार्थ का विकार न होकर स्वयंभू सत्तायें जिनका अस्तित्व अनादि काल से स्वतः वा स्वमेव है।
ऋषि दयानन्द ने जगत की उत्पत्ति में सहयोगी तीन प्रमुख कारणों का उल्लेख कर उनकी व्याख्या की है। वह कहते हैं एक निमित्त कारण, दूसरा उपादान कारण तथा तीसरा साधारण कारण होता है। निमित्त कारण उस को कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्तर कर बना देवे। दूसरा उपादान कारण उस को कहते हैं जिस के बिना कुछ न बने। वही अवस्थान्तर रूप होके बने बिगड़े भी। तीसरा साधारण कारण उस को कहते हैं कि जो बनाने में साधन और साधारण निमित्त हो। ऋषि दयानन्द जी बताते हैं कि निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक- सब सृष्टि को मूल कारण प्रकृति से बनाने, धारने और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण परमात्मा। दूसरा-परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेक विधि कार्यान्तर बनाने वाला साधारण कारण जीव अर्थात् मनुष्य।
उपादान कारण पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द बताते हैं कि प्रकृति, परमाणु जिसको सब संसार के बनाने की सामग्री कहते हैं, वह जड़ होने से आप से आप न बन और न बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है। कहीं-कहीं जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना और वा बिगड़ना परमेश्वर और जीव के आधीन है। जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिन-जिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन और दिशा, काल और आकाश आदि को साधारण कारण कहते हैं। जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार निमित्त, मिट्टी उपादान और दण्ड चक्र आदि सामान्य निमित्त, दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि निमित्त साधारण और निमित्त कारण भी होते हैं। इन तीन कारणों के विना कोई भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती है। इसी प्रकार से परमात्मा इस सृष्टि की रचना करते हैं। परमात्मा सृष्टि रचना वा उत्पत्ति का मुख्य निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण है। जीव इस कार्य प्रकृति वा सृष्टि के भोक्ता हैं जिनके लिये इस सृष्टि को बनाया गया है। सृष्टि रचना का यही वर्णन सत्य विज्ञान से युक्त हैं। हम आशा करते हैं कि यदि वैज्ञानिक वेदों को पढ़ेंगे, समझेंगे व जानेंगे तो उन्हें ईश्वर के द्वारा सृष्टि वा पृथिवी आदि की रचना में किसी प्रकार की भ्रान्ति दृष्टिगोचर नहीं होगी।
ऋग्वेद में वर्णन है कि यह सब जगत् सृष्टि के पहले प्रलय में अन्धकार से आवृत व आच्छादित था। प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है। उस समय यह जगत न किसी के जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था किन्तु वर्तमान में जाना जाता है और प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त जानने योग्य होता और यथावत् उपलब्ध है। वेदों में सृष्टि विषयक यह वर्णन युक्ति, तर्क एवं विज्ञान के अनुरूप है।
ईश्वर ने पृथिवी व लोक-लोकान्तरों से युक्त सृष्टि को बनाया है। उसका सृष्टि को बनाने का प्रयोजन है। इस पर लेख के आरम्भ में सृष्टि के प्रयोजन पर विचार प्रस्तुत किये हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर यदि सृष्टि को न बनाता तो आनन्द में रहता और जीवों को भी सुख, दुःख प्राप्त न होता। इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि यह आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं। पुरुषार्थी लोगों की नहीं और जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? सृष्टि के सुख दुःख की तुलना की जाय तो सुख कई गुना अधिक होता और बहुत से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन कर मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। प्रलय में निकम्मे जैसे सुषुप्ति में जीव पड़े रहते हैं वैसे रहते हैं और प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के किये पाप पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव क्यों-कर भोग सकते? ऋषि इसके उत्तर में कहते हैं कि यदि तुम से कोई पूछे कि आंख के होने में क्या प्रयोजन है? तुम यही कहोगे देखना, तो जो ईश्वर में जगत् की रचना करने का विज्ञान, बल और क्रिया है उस का क्या प्रयोजन, बिना जगत की उत्पत्ति करने के? दूसरा कुछ भी न कह सकोगे। और परमात्मा के न्याय, धारण, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब वह जगत् को बनाये। उस का अनन्त सामथ्र्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने ही से सफल होता है। जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है। ऋषि के यह उद्गार सृष्टि की रचना का सत्य चित्र प्रस्तुत करते हैं जिसे पढ़कर जिज्ञासु की आत्मा सन्तुष्ट व प्रसन्न होती है।
हमने पृथिवी सहित सभी लोक-लोकान्तरों से युक्त सृष्टि रचना का वैदिक सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। यही सृष्टि की उत्पत्ति का सत्य सिद्धान्त हैं। पाठक इसे पढ़े और इससे लाभ उठाये। इसे मानने से हमारा जीवन उन्नति को प्राप्त होकर हमारे परजन्म में भी उन्नति होना निश्चित है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य