कविता

जिज्ञासा

एक प्रश्न बार बार
मेरे मन में उभरता है,
मानव जीवन पाकर
आखिर क्या विशेष होता है?
ये प्रश्न कौंधता है
बार बार कचोटता है,
पर सटीक उत्तर के बिना
अब तक भटकता है।
मेरी आत्मा का मुझसे
बार बार ये प्रश्न पूछना
मुझको बहुत अखरता है,
फिर मुझे मौन पाकर
मन निराश हो जाता है।
फिर मेरे मन में खुद ही
ऐसा विचार आता है,
क्या पशुवत जीवन
राक्षसों सा आचरण
गिद्धों जैसे कृत्य
लोमड़ी जैसी कुटिलता
बंदरों जैसी अस्थिरता
पागल कुत्तों जैसी छीना झपटी
दूसरों की खुशियाँ छीन
अपनी प्रगति की खातिर
औरों की लाशों को कुचलते हुए
आगे बढ़ जाना,अट्टहास करना
औरों के दुःख दर्द देख
मुँह फेर कर निकल जाना
मानव होकर भी मानवता की
गलाघोंट प्रतियोगिता में
विजय दर्प से नाचना ही
क्या मानव होने का मंतव्य है?
शायद हाँ क्योंकि ऐसा ही हो रहा है
या फिर शायद नहीं
क्योंकि इसके उलट भी
मिसाल बार बार सामने आ रही है।
औरों के दुःख दर्द से भी
लोग विचलित हो रहे हैं,
मानवता संग गैरों की खातिर
खुद को भी दाँव पर लगा दे रहे हैं,
मानव होने का हर फर्ज निभा रहे हैं
मानवता की नजीर गढ़ते जा रहे हैं।
परंतु मेरी जिज्ञासा का
कोई सटीक जवाब नहीं मिल रहा है,
मेरी जिज्ञासा भी मानव के
बहुरुपिए आवरण में अब तक
शायद बार बार गुमराह हो रही है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921