मुसाफ़िर
दुनियाँ के सफ़र में है हयात मुसाफ़िर
भटक रही यहां पर है किसकी खातिर
एक राह है आने की जाने की भी है एक
तो भेद भाव कैसा बन जाएं हम नाज़िर
आए यहां क्या लेके क्या साथ है जाना
धोखा धड़ी में फिर क्यूं होने लगे माहिर
नफ़रत को आ मिटाके कुछ ऐसा हम करें
ऐसी चले बयार के बस प्यार हो ज़ाहिर
ऐसा जहां हो सब जहां रहें सुकून से
दुख दर्द में सभी के हो जाएं सब हाज़िर
ज़न्नत का नज़ारा उतर आएगा ज़मीं पे
ऑखों से गुफ़्तगु हो लब रहने दें कासिर
— पुष्पा “स्वाती”