कविता

सिसक रहे हम छुप छुप कर

कितना चाहा वो सपनों में आएँ
रह गई ख्वाब मैं तो बुन बुन कर
सेज ए उल्फ़त सजाने की ख़ातिर
ढेरों गुल ले आई थी चुन चुन कर
देख तबस्सुम न भ्रमित हो जाना
अब सिसक रहे हम छुप छुप कर
समझना नकारा न फ़ौज को तुम
मारेगी अरि के घर में घुस घुस कर
रखते हैं नाता उगते सूरज से सब
करें उसको सलाम, झुक झुक कर
गोरी कोई निकले बड़े मान से जब
बजे उसकी पायल है रुन झुन कर
सताना न यारा कहीं हद से ज्यादा
आने लगीं साँसे भी रुक रुक कर

— नीलोफर नीरू

नीलोफ़र नीलू

वरिष्ठ कवयित्री जनफद-देहरादून,उत्तराखण्ड