वेदना
स्वर प्रकंम्पित है अधरपर
अश्रुओ के धार कितने
प्रलय है पीड़ा की उर में,
वेदना के तार कितने।
दीप है कितने प्रज्वलित,
मन शलभ सा है यह चंचल।
खेल रहे हैं पुष्प कितने,
बैठी फैलाकर मैं अंचल।
कुछ नहीं है भाग्य में अब,
पुष्प के हैं हार कितने।
उठ रहा है ज्वार कोई,
इस हृदय के सिंधु में क्यों।
बुन रहा है जाल कोई,
घोर दुख के बिंदु से क्यों।
होती जो तरणी विकल सी,
टूटते पतवार कितने।
प्यास मन में थी जलद की,
और जग मरू सा घाना था।
मन तिमिर क्यों बुन रहा है,
जो कभी किरणों से बना था।
मन को भाए बस अंधेरा,
दीप के त्यौहार कितने।
सपने तो थे इंद्रधनुषी,
मोर पंखों से रंगीले।
खंडहर से बन गए हैं,
गेह मन के वह सजीले।
जल रहे हैं कागदो से,
लेखनी के सार कितने।
— कामिनी मिश्रा