उठे जब भी कलम मेरी
उठे जब भी कलम मेरी
अधरों पर कुछ विचार लिए।
चल पड़ती हूँ तब में
कुछ नयें अंदाज लिए।।
सोचती है इक नयीं पहेली
अंगुलियों की पनाह में।
लिखती है नयीं
कहानी एकान्त में।।
उठे जब भी कलम
भावनाओं के सागर में।
डूब जाती है ये मेरी कलम
स्याही के समन्दर में।।
कभी अश्कों की
नमी रच लेती है।
कभी हृदय की परख
कर लेती है।।
बैठे-बैठे इतिहास स्वर्ण,
अक्षरों में अंकित कर लेती है।
ये मेरी कलम सागर से मोती
हिमालय से मुकुट,
और चाँद से चाँदनी चुरा लेती है।।
उठे जब भी कलम,
इक नया सूरज उगा लेती है।
कभी निशां की रोशनी में
कभी भोर में चल लेती है।।
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ