गुरु द्रोणाचार्य के दीक्षान्त समारोह की चर्चा पूरे हस्तिनापुर में हो रही थी। कौरव और पांडव राजकुमारों ने अपने कला-कौशल का जो विलक्षण प्रदर्शन किया था, उससे सारा हस्तिनापुर आश्चर्यचकित था। इससे पहले शायद ही कभी ऐसी शक्तियों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया हो। नगर के हर नुक्कड़ और चौराहे पर जहाँ भी चार नागरिक एकत्र होते थे, वहीं इसकी चर्चा छिड़ जाती थी।
”राजकुमारों ने चमत्कार कर दिया।“ एक नागरिक ने अपनी टिप्पणी की।
”निस्संदेह ! शक्ति और कला का ऐसा प्रदर्शन हमने तो कभी नहीं देखा।“ दूसरे ने कहा।
”राजकुमार अर्जुन ने अपने धनुष से जो विलक्षण कार्य किये थे उन्हें देखना हमारा सौभाग्य था। ऐसी कला और किसी के पास नहीं है।“ तीसरा बोला।
”राजकुमार भीम ने गदा युद्ध में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। दुर्योधन उसके सामने कहीं नहीं टिक रहे थे।“ पहले नागरिक का कहना था।
”लेकिन वह सूत कर्ण वहाँ कहाँ से आ गया? वह भी कोई छोटा धनुर्धर नहीं है!“ चौथे ने बीच में हस्तक्षेप किया।
”हाँ! सुना है कि वह भगवान परशुराम से शिक्षा लेकर आया है। पर वह अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकता।“ तीसरे ने अपना मत व्यक्त किया।
”अब तो वह दुर्योधन का मित्र बन गया है! दुर्योधन ने उसे अंग देश का राजा बना दिया है।“ चौथा बोला।
”हाँ! अब वह शायद दुर्योधन के साथ ही रहेगा।“
”फिर भी पांडव राजकुमारों की बराबरी कोई नहीं कर सकता।“
”सही कह रहे हो! अन्त में तो राजकुमार युधिष्ठिर को ही राज्य सँभालना है। वे ही राज्य के सच्चे अधिकारी हैं और पूरी तरह योग्य भी।“
इसी तरह की चर्चाएँ पूरे हस्तिनापुर में हो रही थीं। नागरिकों के बीच होने वाली इन चर्चाओं के समाचार महामंत्री विदुर तक पहुँच जाते थे, क्योंकि उन्होंने पिछले कई वर्षों में अपना एक गुप्तचर तंत्र विकसित किया था, जो केवल उनको ही सभी सूचनायें देता था। उनके गुप्तचर राजधानी के हर क्षेत्र में और हर वर्ग में साधारण नागरिकों के रूप में विचरण करते रहते थे और समय-समय पर विदुर जी को अपनी सूचनायें दिया करते थे। वास्तव में वे साधारण नागरिक ही थे, लेकिन आवश्यकता के अनुसार सूचनायें एकत्र करके विदुर जी तक पहुँचाया करते थे। यहाँ तक कि महाराज के अंगरक्षकों की टुकड़ी में भी विदुर जी के विश्वस्त सैनिक थे, जो सूचनायें गुप्त रूप से विदुर जी तक पहुँचाते रहते थे।
राजधानी हस्तिनापुर ही नहीं, कुरु साम्राज्य के अन्तर्गत सभी प्रमुख नगरों में उनके गुप्तचर उपस्थित थे, जो अपनी आजीविका का सामान्य कार्य करते हुए भी महामंत्री को सूचनायें भेजा करते थे। महामंत्री विदुर अपने गुप्तचरों को राज्य कोष से पर्याप्त पारितोषिक दिया करते थे और उनको संतुष्ट रखते थे। इससे वे विदुर जी के बहुत विश्वासपात्र बन गये थे, हालांकि वे एक-दूसरे से परिचित नहीं थे। केवल विदुर जी ही उन सबसे परिचित थे। वे स्वयं भी आवश्यकता के अनुसार नगर में घूमकर अपने सम्पर्कों को सुदृढ़ करते रहते थे।
दीक्षान्त समारोह के बाद जनमानस की भावनायें महामंत्री विदुर जी को ज्ञात होती रहती थीं और उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि अब लम्बे अन्तराल के बाद हस्तिनापुर को उसका सुयोग्य राजा प्राप्त होने वाला है। पांडु के वनगमन के समय से ही धृतराष्ट्र ही राजा बने हुए थे। हालांकि वे प्रतीकात्मक ही थे। समस्त राजकार्य वास्तव में महामंत्री विदुर द्वारा ही चलाया जाता था, यद्यपि सभी नीतिगत कार्यों में महाराज से आज्ञा ली जाती थी और उनकी ओर से ही आदेश दिये जाते थे। महाराज की अनुमति मिलने पर ही कोई निर्णय अन्तिम माना जाता था।
आलोक– महाभारत पर आधारित मेरे तीसरे लघु उपन्यास ‘षड्यन्त्र’ का लेखन कार्य प्रगति पर है। यह वारणावत में पांडवों को उनकी माता कुन्ती सहित जीवित ही जलाकर मार डालने के षड्यन्त्र पर आधारित है। आज से इसको “जय विजय” पर धारावाहिक लगाना प्रारम्भ किया जा रहा है और हर तीन दिन में इसकी एक कड़ी यहाँ प्रस्तुत की जाएगी। इस पर आपकी टिप्पणियों का स्वागत किया जाएगा।