आज वही सौगात लिखूं
बैठी बैठी सोचा करती
क्यों न प्रकृति की बात लिखूं।
मानव को जो मिली प्रकृति से,
आज वही सौगात लिखूं।
शीतल सघन वृक्ष है,आश्रय
खग मृग का है यह बरगद।
देख-देख हरदम ही प्रमुदित,
रहता मेरा मन है गदगद।
इसे देखकर मन कहता है
ईश्वर की खैरात लिखूं
मानव को जो मिली प्रकृति से,
आज वही सौगात लिखूं।
रंग बिरंगी तितली का मैं
फूलों संग विलास लिखूं।
या बसंत में प्रियतम का मैं
वास सजनि के पास लिखूं।।
इन्हें देख कर मन कहता है
चांद वाली रात लिखूं।
मानव को जो मिली प्रकृति से,
आज वही सौगात लिखूं।
मधुर सुगंधित आम्र मंजरी
मन व्याकुल कर जाती है।
उसी वृक्ष की डाल बैठकर,
कोकिल गीत सुनाती है।
मन करता है लिख ही जाऊं
मीठी सी मन बात लिखूं
मानव को जो मिली प्रकृति से,
आज वही सौगात लिखूं।
पर्वत की बेटी हैं नदियां
कल कल छल छल आती हैं।
दूर सुदूर खेत मैदाँ की,
तृषा वही मिटाती हैं।
मन करता है सागर से मैं
उनकी एक मुलाकात लिखू।
मानव को जो मिली प्रकृति से,
आज वही सौगात लिखूं।
लेकिन मानव के देख अकृत्य
मेरा मन घबराता है।
इस ओर प्रकृति है सुखदाई
मानव उत ध्वंश मचाता है।
मेरा मन फिर रो उठता है
हां मेरा मन फिर रो उठता है
बोलो क्या जज्बात लिखूं
मानव को जो मिली प्रकृति से,
आज वही सौगात लिखूं।
== वीनू शर्मा