उमंगें जगाने लगी
सावन की काली घटा घिरी है,
रिमझिम फुहारें पड़ने लगी हैं।
मेरे प्यारे कहां रह गए तुम,
तुम्हारी कमी अखरने लगी है।
बेला,चमेली,महकती रातरानी,
मन की उमंगें जगाने लगी हैं।
वश में नहीं मेरा तन-मन सनम,
तुम्हारे लिए अंखियां बरसने लगी हैं।
झूला भी अच्छा नहीं लग रहा है,
यादें तुम्हारी अब रुलाने लगी हैं।
चले आइए, सावन की हवा भी,
रह-रहकर अब जलाने लगी है।
तुम्हारे बिना मेहंदी का लगाना,
जैसे मुंह को चिढ़ाने लगी हैं।
दादुर, मोर पपीहा, कोयल, झींगुर,
सब की आवाजें पीड़ा बढ़ाने लगी हैं।
कहां तक सम्हालूं मैं अपने-आपको,
हिम्मत भी साथ छोड़ जाने लगी है।
— अनुपम चतुर्वेदी