कविता

आजादी

देकर प्राणों की आहुति,
हमें मिली है आजादी,
खेल रक्त की होली धरा,
सिसक,सिसक के रोई थी,
तब मिली है,आजादी,
सन संतावन की क्रांति में,
चमकी थी तलवारें जब,
वीरांगना झांसी की रानी ने,
भरी  हुंकार  थी तब,
मिली है आजादी,
जब हुआ बसंती रंग चोले का,
बांध कफ़न सर पे वीरों ने,
जयकारा हिंद का लगाया था,
तब मिली है आजादी,
इंकलाब के नारे से जब,
गोरे भी थर्राए थे ,
भगत,गुरू और सुखदेव ने,
जब हँसके फांसी के फंदे चुमे थे,
तब मिली ये आजादी,
करके खूनी हस्ताक्षर जब,
युवाओं ने जोश दिखलाएं थे,
भाल तिलक लगा करके जब,
माताओं ने लाल भेजे थे,
तब मिली है आजादी
पंद्रह कोड़े की मार को जब
तन पर  फूल बतलाएँ.थे।
माँ भरती का बेटा पितु,
स्वाधीनता को बतलाएं थे,
दे प्राणों की आहुति खुद को,
आजाद बतलाएं थे,
तब मिली है आजादी।

— सुनीता सिंह ‘सरोवर

सुनीता सिंह 'सरोवर'

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका,उमानगर-देवरिया,उ0प्र0