कविता

भूख

भूख लगी-भूख लगी
माँ खाना दो,
दाल दो-चावल दो-
आलू दो,खाना दो,
माँ सोची लाऊ सच्चे से,
या पानी पिलाकर सुला
डालू अच्छे से।
भूख से तड़पे हमारे
भविष्य बच्चों के,
भूख की अपनी ही एक
लाचारी है अच्छो-अच्छो के,
लोरी न जमती खाली
पेट बच्चों के,
जिंदगी बोझ लगे बचपन
से ही अच्छो-अच्छो के।
भूख की मार वही जाने
जो हँसते हुए नहीं रोते हुए
अपनी रातें बिताया करते है,
कभी सड़को पर, तो कभी
कूड़ादान की पेटीयो में
सो जाया करते है,
अमीर, चैन की नींद
भरपेट सोते है,
और गरीब सुबह होने का
इंतजार में घूमते-फिरते है।

— ईशानी मुखर्जी

ईशानी मुखर्जी

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका,रायपुर-छत्तीसगढ़ 9399745063