गीत/नवगीत

मधुगीति

जातियों मज़हबों की हद में रह,
शरीर मन की तरंगों तुम बह;
देश औ काल की गुफाओं फँस,
चित्त पात्रों का क्या सकोगे तक!

झाँक क्या स्वत्व को सकोगे उर,
मिला क्या पाओगे सृष्टि से सुर,
मिलाके पंच-तत्व स्वर चितवन,
महत क्या मिल सकेगा गुरु चरणन!

अहं क्या बहम छोड़ पाएगा,
मोह क्या प्रभु प्रतीति पाएगा;
क्षोभ क्या क्षुद्र को बिहाएगा,
रुद्र क्या शिव स्वरूप भायेगा!

कहाँ कोई हमारा है हर उनका,
सुता सुत दारा प्रभु लहर थिरका;
रिश्ते नाते बने महर उनकी,
क़हर में खिसके तर्ज़ गह उनकी!

हर ही अपना है हर ही सपना है,
यंत्र वत नाचा हरेक नायक है;
प्रभु गुरु चक्र दिए ‘मधु’ को धुन,
कितने आयाम ले दिए सिहरन!

— गोपाल बघेल ‘मधु’