सामाजिक

वैवाहिक रिश्ता संयोजन में अड़चनें – कारण, प्रभाव और समाधान

आज जहां हमारा समाज विकास की ऊंचाईयों को सफलतापूर्वक स्पर्श करने का प्रयास कर रहा है, और इन प्रयासों में काफी कुछ हद तक सफलताएं भी प्राप्त हो रही हैं। वहीं बहुत कुछ वैचारिक व परंपरागत विषमताएं भी अपना प्रभाव दिखाकर विकास के इस रथ को रोक कर प्रश्नचिन्ह भी खड़े किये हुए हैं। जो जाति, संप्रदाय, धर्म और रीति-रिवाज, परंपराओं के रूप में समाज में दृष्टिगत होती हैं। ये विषमताएं समाज को कहीं न कहीं एक-दूसरे से जोड़ने के बजाय विलग करने में अपना दुष्प्रभाव दिखाती रहती हैं, जो प्रेम-सौहार्द्र से परिपूर्ण सामाजिक वातावरण व व्यवस्था को बहुत नुकसानदायक साबित हो रही हैं। ऐसी ही एक विषमता आज अधिकांशत: युवक और युवतियों का उपयुक्त समय पर सुयोग्य वैवाहिक रिश्ते में बंधने के प्रकरण में भी अवरोध पैदा कर रही है।
हमारे मार्गदर्शक शास्त्रकारों ने गहन चिंतन-मनन व अनुभवों के आधार पर हिंदू सनातन संस्कृति में मानवीय जीवन के जन्म से म‌त्यु तक सोलह संस्कारों की व्यवस्था की है। संस्कार का अर्थ है- क्रमबद्ध रूप से सभ्य, सुशील, सुसंकारित व सुसंस्कृत होना। इनमें प्रथम संस्कार शिशु (भ्रूण) का मां के गर्भावस्थित स्थिति में और अंतिम संस्कार मृत्यु उपरांत करने का प्राविधान है। जीवनावस्था में होने वाले अन्य सभी संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण व सर्वमान्य तथा लोक-प्रचलन में यदि कोई संस्कार है तो वह है विवाह संस्कार। इसी विवाह संस्कार के संबंध में इस आशय से यहां विवेचना करने का प्रयास किया जा रहा है कि विवाह संस्कार व संबंधों के स्थापन में आज समाज में जो भ्रांतियां तथा विषमताएं व्याप्त हैं, उन्हें दूर किया जा सके। और यदि यहां इंगित तथ्यों को समझते हुए, यदि समाज में कुछ सोच अनुकूल हो पायी तो निश्चित ही लेखन का यह प्रयास सफल समझा जा सकेगा, लेकिन यह तभी संभव है, जब समाज आलेख की सभी बातों को गहनता से पढ़े और अन्तर्मन से उन्हें समझे-मनन करे और स्वयं से ही अमल में लाने का प्रयास करे।
विवाह एक ऐसी महत्वपूर्ण पारिवारिक व्यवस्था व संस्कारित संबंध है, जिसे दो अलग-अलग आत्माओं का पवित्रतम मिलन व आपसी विश्वास का बंधन कहा जाता है। शास्त्रों में कई प्रकार के विवाह संबंधों की विवेचना की गई है, जिनमें आठ पद्धतियों के विवाहों का उल्लेख मिलता है। इन आठ प्रकार के विवाहों के संबंध में मनुस्मृति के अध्याय-03 के श्लोक-21 में उल्लेख किया गया है कि-
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्राजापत्यस्तथासुर:। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचाश्चाष्टमोऽधम:।।
अर्थात् आठ प्रकार के विवाह इस प्रकार से हैं- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच, इन में से अंतिम आठवां पैशाच विवाह सबसे निकृष्ट माना गया है। अंत के दो विवाहों- राक्षस और पैशाच विवाह को न ही सभ्य समाज मान्यता देता और न ही इन्हें कानूनी स्वीकार्यता प्राप्त है।
इन आठ विवाह पद्धतियों में भी मुख्यत: आज चार प्रकार की विवाह व्यवस्थाएं ही प्रचलन में हैं, जो ब्रह्म विवाह, देव विवाह, प्राजापत्य विवाह और गंधर्व (प्रेम) विवाह के नाम से जाने जाते हैं। इनमें भी लोकप्रिय व सर्वमान्य व्यवस्था देव विवाह की मानी जाती है। इसके अलावा गंधर्व (प्रेम) विवाह को भी कुछ-कुछ समाजों/क्षेत्रों में मान्यता प्रदान की गई है, इसे प्रेम विवाह का नाम भी दिया जाता है, प्रेम विवाह के ही अंतर्गत न्यायिक विवाह (कोर्ट मैरिज) को कानूनन मान्यता प्रदान की जाती है। न्यायिक/प्रेम विवाह व्यवस्था में दोनों (युवक-युवतियों) की कानून द्वारा निर्धारित बालिग (वयस्क) अवस्था होनी आवश्यक है और इसमें संबंध हेतु दोनों की पूर्ण सहमति का होना भी आवश्यक है। जहां इन दोनों शर्तों का अभाव होता है या फिर भी एक तरफा या बलपूर्वक वैवाहिक (शारीरिक) संबंध बनाये जाने का प्रयास किया जाता है, उसे पूर्वकाल में राक्षस (पैशाच) विवाह की संज्ञा दी जाती थी, जो कहीं भी और किसी दृष्टि से सही नहीं था और न ही आज है। आज भी आपराधिक प्रवृत्ति वालों तथा असभ्य समाज में यह व्यवस्था दिखाई देती है। इस प्रकार की अनेकानेक घटनाएं देश-दुनियां में होती रहती हैं, जो आम समाज के लिए बहुत घातक भी हैं। जो आपराधिक श्रेणी में न्यायिक प्रक्रिया के तहत कठोर दण्डनीय भी है। इन सभी विवाह व्यवस्थाओं, पद्धतियों, परंपराओं में सबसे लोकप्रिय ब्रह्म-देव विवाह, जिसे आज मानव विवाह की संज्ञा भी दी गई है। इसमें विवाह योग्य युवक-युवतियों के परिवार वालों द्वारा आपसी प्रेम-स्नेह, रिश्ते-नाते या कुण्डली मिलान की अनुकूलता के आधार पर संबंध तय किया जाता है, लेकिन इस वैवाहिक संबंध में आज कुछेक लोगों की स्वकेंद्रित स्वार्थपरक सोच व संकीर्ण मानसिकता के कारण बहुत से विकृतियां आने लग गई हैं, जो बहुत चिंता का विषय है।
हिन्दू विधि में विवाह व्यवस्था का इस प्रकार उल्लेख मिलता है, जो कि शास्त्रोक्त भी है- ‘हिन्दुओं में विवाह एक संस्कार माना जाता है, जो हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के पूर्व से हिन्दू शास्त्रों में बताई गई विधियों एवं रीतियों से ही संपन्न किया जाता है। ऐसी धारणा रही है कि विवाह के पश्चात् पत्नी, पति के शरीर का आधा भाग बन जाती है, इसीलिए उसे अर्धांगिनी कहा जाता है तथा इसी आधार पर विवाह का बन्धन अटूट माना जाता था। पति का देहांत हो जाने के पश्चात् पत्नी को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं दी गई थी, क्योंकि ऐसी मान्यता थी कि अर्धांगिनी होने के कारण उसमें पति का आधा भाग विद्यमान है। साथ ही साथ विवाह को स्त्री-पुरुष की इन्द्रियों के सुख हेतु मिलन न मान कर पति-पत्नी की आत्माओं का एक दूसरे से मिलन माना जाता रहा है।’
भारतीय संस्कृति व सभ्यता की इस पवित्रतम परंपरा पर आज जिस प्रकार कुछेक अतिवादी तथा स्वकेंद्रित प्रतिष्ठा व सम्मान बनाये रखने की इच्छा के कारण सामाजिक सहिष्णुता व आपसी प्रेम-स्नेह, रिश्ते-नाते को नजरंदाज कर विवाह योग्य युवक-युवतियों के परिजन अथवा स्वयं लड़के-लड़कियां एक-दूसरे के आंतरिक विचार व शिष्टाचार, सभ्यता और आचरण की परख न करके मात्र बाहरी शारीरिक आकृति की (सुंदरता) अनुकूलता अर्थात् दिखावापन को ही अधिक आकर्षण व योग्यता का मानक मान रहे हैं, यह बाहरी आकर्षकता विवाह के पश्चात् आंतरिक व्यवहार-विचार के रूप में अच्छे या बुरे भाव में दिखने पर पति-पत्नी के आपसी रिश्ते, स्नेह-प्रेम या कटुता-दुश्मनाई में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप समय-समय पर समाज में कई प्रकार की विकृतियां दिखाई व सुनाई देती हैं। इस प्रकार के प्रकरण अधिकांशतः प्रेम-प्रसंग के विवाहों में दिखाई देते हैं।
यहां यह बात समझ लेनी आवश्यक प्रतीत होती है कि हमारे पूर्वजों ने समाज की एक अच्छी और सुदृढ़ व्यवस्था बनाये रखने के लिए पूर्व से समाज को उनके विभिन्न कार्यों के आधार पर चार वर्णों में विभाजित किया था, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम से विभाजित थे। इनमें उनकी आपसी कार्यकुशलता व सामाजिक व्यवस्था के तहत कोई समस्या नहीं होती थी, लेकिन कालांतर में कुछेक लोगों द्वारा अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस प्रकार की व्यवस्था को अपना सशक्त हथियार के रूप में उपयोग किया जाने लगा, जिससे सामाजिक ढ़ाचा अव्यवस्थित होने लगा। स्पष्ट है कि- ‘चार वर्ण व्यवस्था जन्माधारित न होकर कर्माधारित थी।’ जिसे जन्मसिद्ध मानने वालों ने विखंडित कर दिया। आज भी निम्न वर्ण में जन्म लेने वाला बहुत उच्च कर्मयोगी दिखाई देते हैं और कई उच्च वर्ण में जन्मने के बाद भी निम्न से निम्नतर काम करते दिखाई देते है। फिर कैसे सम्मान और असम्मान का निर्धारण किया जाय, यह निश्चित ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसी प्रकार की विषमताओं को देखकर कुछ विद्वानों (शास्त्रकारों) द्वारा कर्मों के स्तर को बनाये रखने के उद्देश्य से निम्न मार्गदर्शक श्लोक का उल्लेख किया गया है-
जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात् भवेत् द्विजः। वेद-पाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।
अर्थात्- जन्म से हरेक मनुष्य शुद्र, संस्कारों से द्विज, वेद-शास्त्र के पठान-पाठन से विप्र और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने व उसके मर्म/रहस्य को भली-भांति जानने से ब्राह्मण कहलाता है। इसका आशय यह है कि- कोई भी मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण कुल में ही क्यों न जन्मा हो, वह तब तक ब्राह्मण की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, जब तक वह उक्त श्लोक के क्रमानुसार विभिन्न योग्यताओं/विशेषताओं को सफलतापूर्वक प्राप्त नहीं कर लेता है। जन्म के बाद समय-समय पर बिना संस्कार, बिना पठन-पाठन और बिना ब्रह्म अर्थात् सारतत्व को जाने, कोई भी न वैश्य, न क्षत्रिय और न ही ब्राह्मण हो सकता है, अर्थात् जन्म के बाद जो जैसा ज्ञान प्राप्त कर कर्म करेगा, उसी अनुसार उसका वर्ण व्यवस्थानुसार निर्धारण सुनिश्चित होगा। इसी प्रकार का उल्लेख पौराणिक ग्रंथ स्कन्द-पुराण में भी मिलता है। उसमें लिखा गया है कि- ‘कोई मनुष्य संस्कारों के मापदण्डों पर खरा उतरने से ही ब्रह्मत्व को प्राप्त कर सकता है।’ जिस प्रकार किसी डाक्टर, इंजीनियर, वकील या अध्यापक के घर जन्म लेने से ही कोई मनुष्य डाक्टर, इंजीनियर, वकील या अध्यापक नहीं बन जाता या माना जाता है, अपितु इनके लिए निर्धारित उपाधियों को प्राप्त करने हेतु इनसे संबंधित शिक्षा-दीक्षा में सफलता प्राप्त करनी आवश्यक होती है, तभी वह इन नामों/उपाधियों से जाना जायेगा। उसी प्रकार संस्कारों/ज्ञान की सीढ़ियों को पार कर ही कोई शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण कहलाता है। यह व्यवस्था चाहे शास्त्रों में निर्धारित हो या ना हो, फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से भी यह ज्ञान/कर्म सिद्धांत बहुत युक्तिसंगत प्रतीत होती है। इसमें दुखद पहलु यह है कि जहां वर्ण-व्यवस्थानुसार निर्धारित कर्मों की शुद्धता/क्रियान्वयन से कोई श्रेष्ठ (जाति) वर्ण का माना/बताया जाता है, वहीं इन चार वर्णों के मध्य भी किसी को उच्च, मध्यम और किसी को निम्न श्रेणी में विभाजित करके धर्म व व्यवस्था के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा वर्णों की आपसी एकात्मक व्यवस्था को भी विखण्डित करने की कोशिश की जाती रही है।
समस्याएं/कारण:- रिश्तों की स्थापना में वर्तमान में आ रही अड़चनों के अंतर्गत, जो घटक/कारण महसूस किये जा रहे हैं, वे इस प्रकार हैं:-
01- वर्तमान समय से 25 से 30 वर्ष पूर्व से हमारे समाज में कन्या (शिशु) के प्रति कुछेक लोगों का उदासीन भाव रहने के कारण, कन्या-भ्रुण को जिस प्रकार से क्षति पहुंचाई गई, उसके कारण आज लिंग-अनुपात के अनुसार विवाह योग्य लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा कम हो गई है, जिससे कहीं न कहीं इस अनुपातिक असमानता से युवकों को शादी हेतु युवतियां मिलने में कठिनाई हो रही हैं, इससेे कई युवकों को चाहते हुए भी युवतियां न मिलने से अविवाहित रहने को मजबूर होना पड़ रहा है।
02- आज लड़कों की अपेक्षा लड़कियां शिक्षा-दीक्षा सहित अनेकानेक विधाओं में अधिक सफल और योग्यता प्राप्त हैं, जिससे उन्हें अपने संबंधित वर्ग व समाज-परिवेश में यथा योग्यतानुसार लड़के प्राप्त न होने से वैवाहिक रिश्तों को बनाने में अवरोध उत्पन्न हो रहा है। यहां कोई भी पक्ष समझौतावादी विचारधारा से परे हटकर आधुनिकता से परिपूर्ण बाहरी स्तर व प्रभाव को ही अधिक प्राथमिकता देता है, जबकि सत्यता से परख की जाय, तो बाहरी योग्यता कुछ कम होने पर भी संस्कृतिपरक संस्कारों से युक्त व्यावहारिक योग्यता अधिक उपयुक्त है, जो अधिक लाभकारी भी है, जो अनुभव व परख के आधार पर समाज में अधिकांश दिखाई भी देता है।
03- युवक-युवतियों के परिजनों की ओर से सहमत रिश्ता तय करने में जो अवरोध या विलंब का कारण महसूस किया गया है, वह है, उनकी अपनी पारिवारिक (जाति-व्यवस्था) व व्यक्तिगत प्रभाव व परिवेश के अनुकूल रिश्ता न मिलना। यहां वे अपने झूठे प्रभाव-प्रतिष्ठा व स्तरीयता में इतने अंधे बने रहते हैं कि छोटे-मोटे प्रकरणों में भी समझौतावादी (आपसी सहमति) बनने को तैयार नहीं रहते हैं, चाहे इसके कारण उनके लड़के-लड़कियां विवाह योग्य आयु से भी काफी आगे बढ़ जांय। इस कारण भी कई घर-परिवारों में 30-35 यहां तक कि 40 वर्ष की आयु के युवक-युवतियां विवाह संस्कार से वंचित हैं। लेकिन फिर भी इस प्रकार के परिजन समझने को तैयार नहीं हैं। हां, किसी तरह या मजबूरी में उम्र ढ़लने पर मजबूरीवश तैयार हो जाते, पर तब दूसरा पक्ष ज्यादा आयु होने का बहाना बना कर तैयार ही नहीं होता है, ये विडम्बनाएं उन लड़का-लड़कियों के भविष्य को बर्वाद कर देती हैं, जो वैवाहिक जीवन के साथ कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते हैं, और समाज भी बच्चों की योग्यता से लाभान्वित नहीं हो पाता।
04- यह भी देखने-सुनने व महसूस करने में आ रहा है कि अधिकांश युवक-युवतियां विवाह योग्य आयु होने पर भी इस कारण समय से शादी हेतु सहमत नहीं होते हैं कि उन्हें अभी अपना अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाया है, या वह इस लायक़ नहीं हैं कि शादीशुदा जीवन को स्वावलंबी होकर व्यतीत कर सकें, इसी लक्ष्य के चक्रव्यूह में बहुत से बच्चे 30-35-40 वर्ष की आयु तक शादी से वंचित रह जाते हैं और बाद में अधिक आयु हो जाने के कारण उन्हें चाहते हुए सुयोग्य वर या कन्या नहीं मिल पाती है और फिर मजबूरी में या तो अविवाहित जीवन बिताना पड़ता है या किसी प्रकार योग्य व अयोग्यता के मानक से परे जीवनसाथी बनाना पड़ता है, जो कि कहीं न कहीं संस्कारों के बजाय समझौते की डोर पर ही टिका रहता है। भले ही भाग्यवश कोई अच्छा जीवनसाथी मिल गया तो, यह उनका संचित कर्मों की अनुकूलता/अच्छाई ही कही जाएगी।
05- आज समाज में युवतियों के परिजन और उनमें भी अधिकांशतः स्वयं युवतियां ही शैक्षिक योग्यता में चाहे स्वयं सफल/योग्य हों या असफल/अयोग्य हों, लेकिन समय के साथ बिना मेहनत के इतना लाभ प्राप्ति के इच्छुक हो गये हैं कि हमारी लड़की चाहे अच्छी पढ़ी-लिखी हो या न हो तथा स्वयं सरकारी नौकरी वाली हो चाहे न हो, कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु लड़का तो अवश्य ही अच्छा पढ़ा-लिखा व शासकीय नौकरीपेशा वाला होना ही चाहिए। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि आज समस्या यह है कि वर्तमान में नौकरी संबंधी नियमों/मानकों/व्यवस्थाओं के कारण कुछेक वर्गों में सरकारी नौकरी प्राप्त कर पाना आकाश से तारे लाने जैसा कठिन हो चुका है, अर्थात् नौकरीपेशा वाले बहुत कम हैं और कुछ हैं, तो वे अपने से ऊपरी स्तर के रिश्ते की लालसा पाले हुए हैं। कुछेक अशासकीय सेवाओं में किसी तरह सामान्य-सा जीवन जीने को मजबूर हैं। लेकिन लड़कियां अच्छी-खासी नौकरी वाले की चाह में स्वयं भी शादी की आयु से अधिक आयु की तो हो ही रही हैं, साथ ही अधिकतर लड़के भी अविवाहित रह जा रहे हैं।
06- ग्रामों तथा मूल कश्बों-शहरों से लोगों का रोजगार या अन्योन्य कारणों से पलायन होने से अपनी संस्कृति, सभ्यता व परंपरा के अनुकूल रिश्ते व योग्य परिवार मिलने में भी काफी असुविधा होने से भी यह समस्या बढ़ती जा रही है, फिर या तो उन्हें जहां हैं, वहीं किसी तरह रिश्तेदारी बनानी पड़ रही है या अपने बच्चों को अनुकूल वर-कन्या प्राप्ति की इच्छा से लंबे समय तक अविवाहित रखना पड़ रहा है। ऐसे रिश्तों में बाद में कई बार वैचारिक मतभेद के कारण परेशानियां बढ़ जाती हैं, जो घातक सिद्ध होती हैं।
07- कुछ ऐसा भी समाज में आज दिखाई व सुनाई देता है कि आधुनिकता के वशीभूत होकर कुछेक युवक-युवतियां स्वैच्छिक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, अपने परिवार मां-बाप, रिश्ते-नाते से परे स्वयं ही रिश्ते बना रहे हैं, जिसमें भले ही कुछ काफी सफल भी हैं, लेकिन अधिकतर प्रकरण ऐसे भी हैं, जिन्हें असमान विचारधारा या रीति-रिवाज-परंपरा के कारण बाद में पछताना ही पड़ रहा है, या शीघ्र विवाह-विच्छेद की प्रक्रिया से गुजरना पड़ रहा है और फिर दूसरी शादी के लिए सफल-असफल प्रयास करने पड़ते हैं।
08- कुछ परिवारों में मां-बाप अपने कुल के अनुरूप रिश्ते तय करना चाहते हैं, परंतु बालपनी या बाहरी शिक्षा आदि से संस्कृति व संस्कारों की न्यूनता के कारण बच्चे, इन रिश्तों को मानने से इंकार कर देते हैं। हमारे पूर्वजों द्वारा कहा जाता था कि- ‘सुबह का धोया हुआ मुंह और मां बाप द्वारा तय की शादी,हमेशा ही भविष्य हेतु सुखदाई होती है।’ लेकिन आज बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़ तो जाते हैं, पर सुसंस्कारित नहीं हो पाते हैं, जो परिवार-समाज के लिए घातक तो है, उससे अधिक स्वयं उन बच्चों के भविष्य के लिए भी बहुत दुखदाई होता है, लेकिन समय पर कोई समझने को तैयार ही नहीं, जिससे बाद में निश्चित ही पछताना पड़ता है।
09- युवक-युवतियों की जन्म-कुण्डली/संज्ञा के मिलान में ग्रह-नक्षत्रों के योग मिलने या न मिलने से भी कई बार शादी तय करने में विलंब होता दिखाई देता है, यह भी देरी का एक मुख्य कारण है। क्योंकि जहां इच्छित या अनुकूल परिवार व लड़का या लड़की होते हैं, ज्यादातर वहां कुण्डली मिलान में नहीं आ पाती है, और जहां औपचारिक इच्छा से कुण्डली देखी जाती, वहां आसानी से संज्ञा जुड़ जाती है। यही तो विषमताएं हैं, जो कहीं न कहीं शादी के लिए विलंब का कारण बनते जाते हैं। इसके संबंध में एक उक्ति सार्थक प्रतीत होती है- ‘हम जो चाहते हैं, भगवान् वह नहीं देता, अपितु हमारे लिए जो अच्छा होना चाहिए, वह हमें प्रदान करता है।’
10- वर्तमान में यह भी अड़चन अच्छे रिश्तों के लिए बनती जा रही है कि अधिकांश स्थानों में शरीर की बाहरी सुंदरता व दिखावे की संपन्नता जैसे आकर्षक चक्रव्यूह में फंसकर युवक-युवतियां स्वयं की यौवनावस्था को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं और असमय गलत राह पर चल कर अपने अस्तित्व व सुयोग्यता को क्षति पहुंचा देते हैं, जिससे स्तरीय गिरावट के कारण पहले स्वयं धोखा तो खाते ही हैं, साथ ही भविष्य को भी अंधकार से ग्रसित कर देते हैं। क्योंकि बाद में चाहते हुए भी उन्हें अच्छा रिश्ता अर्थात् जीवनसाथी मिलना कठिन हो जाता है, जिससे उनके पास पछताने के सिवा कुछ भी नहीं बचता।
11- कुछेक युवतियों अथवा उनके परिजनों की ओर से रिश्ते तय करने में यह शर्त भी बताई जाती है कि लड़के वालों का अपने पैतृक घर-गांव के साथ-साथ बाहर अर्थात् सुविधा संपन्न शहरों में अपनी भूमि/मकान तथा वाहन आदि होना चाहिए, चाहे कन्या पक्ष स्वयं घर में रहता हो या निर्धनता में ही जीवन बिता रहा हो, लेकिन दूसरा अवश्य संपन्न चाहिए, तभी वह वैवाहिक रिश्ते के लिए सहमति प्रदान कर सकते हैं। यह भी एक ऐसी विसंगति है कि जिससे रिश्ते बनने में अवरोध पैदा होता है।
12- अक्सर यह भी सुनने में आता है कि कुछ-कुछ युवतियों या उनकेे परिजनों द्वारा यह शर्त भी रखी जाती है कि युवक के घर में उसके साथ कोई वृद्ध या अन्य अस्वस्थ आश्रित अथवा भाई-बहन आदि नहीं होने चाहिए। यह स्थिति भी रिश्ते की राह में रोड़ा अटका देती है। संस्कारों की जहां बात की जाय, तो इन स्थितियों को देखते हुए कहां हमारी संस्कृति है और कहां संस्कार, यदि कुछ है तो सिर्फ आज है और आज की अंधी आधुनिकता। निश्चित ही बहुत चिंतनीय विषय है।
हमारी सभी मुख्य व्यवस्थाएं वैदिक सनातन संस्कृति में पूर्व से ही सुनिर्धारित हैं, जो कि हमारे लिए सुपथप्रदर्शक का काम करती हैं। उसमें मनुष्य जीवन की आयु के अनुसार उसे चार आश्रम पद्धतियों में विभाजित किया गया है। जन्म से 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य-आश्रम, जिसमें कि ज्ञानार्जन, शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करना। द्वितीय- 26 से 50 वर्ष तक गृहस्थाश्रम, जिसमें कि शादी-विवाह संस्कार से गृहस्थ जीवन व्यतीत कर बच्चों का जन्म-पालन-पोलन, उन्हें समाज योग्य बनाना, सामाजिक रिश्ते-नातों का निर्वहन करना आदि आता है, जो जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आश्रम है। तृतीय- 51 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थाश्रम तथा अन्त में चतुर्थ- 76 से 100 वर्ष की आयु तक संन्यासाश्रम होता है। आज इन सभी आश्रमों में से यदि किसी आश्रम पर ध्यान केंद्रित हुआ है, तो वह है, गृहस्थाश्रम। लेकिन चिंतनीय विषय यह है कि वर्तमान में इस आश्रम का भी शास्त्रोक्त मतानुसार परिपालन न करके अपनी-अपनी सुविधाओं के अनुसार बिताया जा रहा है, जिससे समाज में बहुत-सी विकृतियां/परेशानियां पैदा हो चुकी हैं और अनेकानेक विसंगतियां पैदा होने की प्रबल संभावना बनी हुई रहती हैं।
दुष्प्रभाव:- हमारे पूर्वजों ने यह स्पष्ट किया है कि- जिस मनुष्य को सांसारिक जीवन में प्रवेश करना है तो उन्हें 25 वर्ष की आयु तक शिक्षा-दीक्षा प्राप्ति पश्चात् 26 से 30 वर्ष तक इन 05 वर्षों के अंतराल में अवश्यमेव विवाह संस्कार में बंधकर अपने गृहस्थ धर्म का पालन प्रारंभ कर देना चाहिए। लेकिन क्या आज यह निर्धारण सही रूप में दृष्टिगत हो रहा है.? नहीं। और यही लापरवाही भविष्य में कई प्रकार की समस्याएं पैदा कर सकती हैं।
01- विवाह संस्कार के स्थापन में होने वाले विलंब के उक्त वर्णित बिन्दुवार कारणों से यदि किसी की शादी देरी से होती है तो उसके दूरगामी परिणाम यह होते हैं कि यदि किसी की शादी 35 वर्ष में या उससे अधिक वर्षों में हो पाती है तो इससेे आगे दो तीन वर्षों के अंतराल में ही कोई पुत्र/पुत्री रत्न उत्पन्न हो सकता/सकती है। यदि वह शिशु बाद में विद्यालयी शिक्षा-दीक्षा या अन्योन्य ज्ञान अर्जन करता है तो उसे कम से कम 20 से 25 वर्ष में अपेक्षानुरूप पूर्ण सफलता प्राप्त हो पाती है। यहां समझने की आवश्यकता यह है कि यदि किसी बच्चे का जन्म, पिता की 36 से 40 आयु में होता है तो बच्चे की योग्यता प्राप्त करने की आयु 20 से 25 वर्ष तक है तो तब तक उसके पिता की आयु 55 से 61 वर्ष हो चुकी होगी और वर्तमान में मनुष्य की यह आयु उसकी ढ़लती आयु होती है अर्थात् वह सामान्यतः शासकीय सेवा से सेवानिवृत्त हो या व्यापारी या घरेलु कार्य-मजदूरी आदि करने वाला हो, तो भी वह कार्य करने की क्षमता की कमी से प्रभावित हो जाता है। एक तरफ अभी पुत्र/पुत्री की शिक्षा-दीक्षा आदि पूर्ण कराने हेतु धन/खर्च की अपेक्षा बनी रहती है और साथ ही बच्चों की शादी आदि जवाबदारियां पूरी करना अलग-से भार के रूप में शेष रह जाता है, दूसरी ओर जिस अभिभावक/परिजन/पिता ने खर्चे की व्यवस्था पूरी करनी है, वह अधिक आयु का होने के कारण शारीरिक क्षमता की कमी या बीमारियों से परेशान हो जाता है। ऐसी स्थिति में याद आता कि काश! शादी समय से की होती, तो शायद् बच्चे भी समय पर होते और इस आयु तक हमारे वे बच्चे इतने सक्षम हुए होते कि स्वयं अपने पांवों पर खड़े हो जाते अर्थात् कुछ कमाने की स्थिति में होते और हमें इस वृद्धावस्था में सहारा देते, जिससे मां-बाप को अधिक आयु की इस दहलीज पर इतना परेशान होना न पड़ता।
परन्तु अफसोस यह है कि आज की अंधी दौड़ में कहां इतना सोचने-समझने का समय है, बाद में पछतावा अवश्य होता है, पर…, वह कोशिश करता है कि जिस परेशानी से वह जूझ रहा है, भविष्य में कोई अन्य न जूझे, लेकिन फिर वही जो जवान है, वह इतनी गहराई से सोचने व समझने को तैयार ही नहीं है, यही तो विडंबना है। सभी जानते हैं कि 60 वर्ष की आयु पर सरकार भी अपने कर्मकार को सेवानिवृत्ति दे देता है, अर्थात् यह आयु जीवनभर की गई मेहनत की कमाई को भोगने की होती है।
02- अपनी जातिगत व्यवस्था या उच्च व निम्न आर्थिक स्थिति अथवा अन्योन्य कारणों से शादी न हो पाने पर ऐसे व्यक्तियों को समय-समय पर रूग्णावस्था से ग्रसित होने या वृद्धावस्था की असमर्थता के समय किसी निकटतम आत्मीय सहयोगी के अभाव में बहुत कष्टमय जीवन जीने हेतु मजबूर होना पड़ता है। क्योंकि सभी विज्ञ हैं कि अंतिम अवस्था में आखिर पति-पत्नी ही एक-दूसरे के सबसे महत्वपूर्ण व अन्योन्यतम सहारे होते हैं, और अन्य रिश्ते चाहे कितने भी निकट क्यों न हों, लेकिन जीवन की हरेक बातें, जिस प्रकार पति अपनी पत्नी और पत्नी अपने पति से बिना किसी हिचकिचाहट व औपचारिकता के साझा करके एक-दूसरे का दुःख दूर करने का प्रयास करते हैं, उस प्रकार अन्य किसी से नहीं कर सकते हैं। यही पति-पत्नी के संबंधों की सबसे बड़ी महानता व विशिष्टता है और अविवाहित नर-नारी इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। तब उन्हें बाद में पछताना पड़ता है, लेकिन अब तो समय जा चुका होता है। हां! यदि कोई आजीवन ब्रह्मचर्य पालन या संन्यासी, संत-महात्मा जैसा जीवन जीता है, तो वह उसी अनुकूल साधना के बल पर जीवन व्यतीत करने में सक्षम हो जाता है।
03- विलंब से शादी होने का एक दुष्प्रभाव यह भी दिखाई देता है कि अधिक आयु में शादी होने पर पति-पत्नी युवावस्था में होने वाले प्रभावशाली संबंधों की प्रगाढ़ता व क्षमता तथा भावनाओं की न्यूनता से वैवाहिक जीवन का वह लाभ/आनन्द लेने से वंचित रह जाते हैं, जो उन्हें मिलना चाहिए। विलंब से रिश्ता संयोजित होने के कारण अधिकतर सामान्य औपचारिकता निभाने तक की ही स्थिति बनी रहती है। यह भी अनुभव किया जाता है कि युवावस्था में ससमय शादी होने से पुत्र/पुत्री का जन्म होने पर जवानी में होने से, वे बच्चे भी क्षमताओं से परिपूर्ण होते हैं, जबकि लंबी अवधि/आयु के बाद जन्मने वाले बच्चे क्षमता में जवानी में हुए बच्चों की अपेक्षा सक्षम नहीं पाये जाते हैं। यह क्षमता की अधिकता और कमी, प्राकृतिक रूप से मनुष्य के शारीरिक तत्वों, जैसे रक्त आदि की प्रबलता पर आधारित होता है।
04- वर्ण-व्यवस्था की अनुकूलता के आधार पर रिश्ते तय करने में किसी प्रकार कोई समस्या आड़े नहीं आती है, लेकिन यदि एक ही वर्ण को भी उच्च, मध्यम और निम्न श्रेणी में विभाजित कर इस प्रकार के संबंधों की शर्तें निर्धारित की जाती हैं, तो निश्चित ही सामाजिक प्रेम-सौहार्द्रता के लिए चुनौती बन जाती हैं और अधिकांशतः इस कारण भी युवक-युवतियों की शादी समय से होने में अवरोध पैदा हो जाता है। यह युक्तिसंगत है कि ब्राह्मण का ब्राह्मण के साथ, क्षत्रिय का क्षत्रिय के साथ, वैश्य का वैश्य के साथ तथा शूद्र वर्ण का शूद्र वर्ण के युवक-युवती के साथ शादी का रिश्ता हो, और इसी प्रकार मुस्लिम समुदाय का मुस्लिम समुदाय, ईसाई का ईसाई, जैन का जैन तथा बौद्ध का बौद्ध मतावलंबियों के साथ रिश्ते बनें। यह शादी-विवाह व्यवस्था सबसे उत्तम और सर्वमान्य होनी चाहिए। लेकिन जब इन वर्णों तथा समुदायों में भी उच्च-मध्यम-निम्न श्रेणीवार विभाजन के हिसाब से ही रिश्ते बनाने की बातें आती हैं तो विषमताएं अवश्य जन्म लेती हैं, जो किसी भी प्रकार से अनुकूल नहीं होती हैं।
05- जो मां बाप अपने कुल-खानदान के नाम और उसके अनुरूप रिश्ते की ढ़ुढ़ में अपने युवा पुत्र/पुत्रियों की ससमय शादी नहीं करते, वे मां-बाप, उन बच्चों के परिजन-प्रियजन नहीं, अपितु शत्रुजन होते हैं। क्योंकि अपनी उच्च जाति-व्यवस्था व कुल खानदान तथा संपन्नता एवं झूठी मान-प्रतिष्ठा बनाये रखने के चक्कर में वे अपने बच्चों का भविष्य अंधकारमय बना देते हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जिनके लिए मान-प्रतिष्ठा बनाने का वे मूर्खतापूर्ण दंभ पाले बैठे हैं, जब उन्हीं का भविष्य अविवाहित स्थिति के कारण परेशानियों से ग्रसित हो जायेगा, तो तब तुम्हारी उस झूठी शान व प्रतिष्ठा के सहारे तो जीवन सुखद नहीं बनाया जा सकता है। बाद में वही बच्चे अपने मां-बाप का सम्मान करने के बदले, उन्हें घृणा भाव से बार-बार कोसते रहते हैं, यह विडंबना ही महसूस की जाती है कि- जब परिजन लड़की पक्ष की तरफ के होते तो वे रिश्ते तय करने में उपरोक्तानुसार अड़चनों वाली शर्तें रखते हैं, और जब वे ही अपने लड़के के रिश्ते में इस प्रकार की अन्यों की शर्तों से गुजरते हैं, तो बहुत विरोध करते हैं और पूर्व में अपने द्वारा किये गये व्यवहार से भी पछताते हैं, तब समाज से भी अपमान के सिवा कुछ नहीं मिलता।
06- समस्या के कारण होने वाले दुष्प्रभावों पर दृष्टिपात करें, तो एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि कुछ-कुछ परिवारों में जहां मां-बाप दोनों ही धनार्जन के लिए सरकारी या गैरसरकारी संस्थाओं में कार्यरत्त रहते हैं, वहां वे दंपति अपने बच्चों को अपेक्षित समय नहीं दे पाते हैं, जिससे बच्चों को बालपन में मां-बाप से मिलने वाले ममतामई प्यार-दुलार से वंचित रहना पड़ता है। इस प्रकार के बच्चे बाद में परिवार व रिश्तों के प्रति संवेदनशील होने के बजाय (अपनेपन से दूर) व्यावहारिक दृष्टि से कठोर या लापरवाह बन जाते हैं। इसका एक और दुष्प्रभाव आज समाज में इस प्रकार भी दिखाई देता है, कि कुछेक बच्चे, जिन्हें ममता के बजाय धन-संपन्नता के आधार पर उनकी अच्छी-बुरी सभी आवश्यकताएं पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है, वे युवावस्था में आवश्यकताओं के अभ्यस्त हो जाने के कारण कुसंगत तथा दुर्व्यसनों के दुष्चक्र में अपना भविष्य बिगाड़ देते हैं। और उनकी इस प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यदि बाद में परिवार से बालपन (पहले) की तरह धन (रुपये) नहीं दिये जाते हैं, तो वे युवा-युवतियां परिवार की अधिकांश बातों को अनसुना कर अपनी जरूरतों के लिए बाहर बुरे रास्तों का सहारा लेते हैं, जो परिवार के लिए कष्टकारी तो होता ही है, साथ ही उससे अधिक वे युवा-युवतियां समाज के लिए भी बहुत परेशानीदायक होते हैं। यह स्थिति भले ही सभी परिवारों में नहीं दिखती, परंतु अधिकांशतः समाज में जो ज्यादा इस प्रकार के युवा-युवतियां हैं, वे इन्हीं स्थितियों से निकले होते हैं या जिन्हें बालपन में परिवार द्वारा अंधी ममता के कारण अधिक सुविधा दी जाती है।
07- उपरोक्त कारणों या अन्योन्य परिस्थितियों के फलस्वरूप, जो बालक/बालिकाएं पूर्ण युवावस्था में भी शादी होने या करने से वंचित रह जाते हैं, उनकी युवावस्था संंबंधी इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती हैं, जो कि चिकित्सकीय मतानुसार युवावस्था की आवश्यकता भी समझी जाती हैं। इस कारण वे कुछ चिड़चिड़ेपन के शिकार हो जाते हैं और कभी-कभी यौन संबंधी बुरी आदतों के शिकार भी हो जाते हैं, इस प्रकार के बच्चे- युवा, परिवार व समाज को भी अपनी बुरी आदतों से परेशान भी कर सकते हैं। वैवाहिक संबंधों के विलंब से होने वाला यह दुष्प्रभाव भी बहुत अधिक कष्टप्रद माना जाता है।
समाधान:- उपरोक्तानुसार युवक-युवतियों के रिश्ते तय करने में आ रही परेशानियों के कारण व उन कारणों से बढ़ती समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए इनके समाधान के उपाय पर भी अवश्य गंभीरतापूर्वक ध्यान देना आवश्यक होगा, अन्यथा भविष्य में इनके विपरीत परिणाम इतने अधिक प्रभावी हो जायेंगे कि पारिवारिक-सामाजिक ढ़ांचा अव्यवस्थित हो जाने की संभावना बनी रहेगी।
01- वैवाहिक रिश्तों को बनाने में उपरोक्तानुसार आ रही, अड़चनों को देखते व समझते हुए इनके समाधान पर गंभीरता से चिंतन-मनन की आवश्यकता है। इसके लिए बच्चों के सभी परिजनों/अभिभावकों को समय की स्थिति को समझते हुए ऐसी समझदारी विकसित करनी होगी कि जिससे उनके पाल्यों को जीवन के किसी भी मोड़ पर आपके झूठे मान-सम्मान, स्वाभिमान, प्रतिष्ठा व व्यवस्था बनाए रखने वाले बहाने के कारण लिए गए निर्णय/अनिर्णय के दुष्प्रभाव से दो-चार होना न पड़े और इसकेे कारण उन्हें भविष्य में आपको कोसने हेतु मजबूर न होना पड़े। जब परिजन इस प्रकार अपनी व्यवस्था के बहाने रुकावट पैदा करते हैं, तब बच्चे कच्ची आयु होने के कारण इस बात की गहराई से अनविज्ञ रहते हैं, बाद में परेशानी न अड़चनों का कारण जानने पर बच्चे बड़ी आयु में अपने इन पारिवारिक जनों से घृणा करते देखे जाते हैं।
02- इस प्रकार के संबंधों को बनाने में विलंब के कारणों के समाधान हेतु प्रमुख उपाय के तहत यदि समझा जाय, तो वह यह है कि उपरोक्तानुसार वर्णित बिन्दुवार कारणों को स्वयं या समाज पर कभी-भी प्रभावी होने न दिया जाय। यदि इन पहलुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार कर स्वयं से ही अमल में लाने का प्रयास किया जाय, तो विश्वास है कि यह समस्या कभी-भी अपना दुष्प्रभाव नहीं दिखा पायेगी और न ही किसी को बाद में पछताना पड़ेगा।
03- मात्र सरकारी सेवाओं वाला ही लड़का चाहिए, यह विचार, इसलिए भी समस्या का सबब बनता जा रहा है, क्योंकि वर्तमान में सरकारी सेवाओं में तैनात युवक-युवतियां पहले तो बहुत सीमित हैं, और अगर कोई सरकारी सेवा या किसी प्रतिष्ठित गैर-सरकारी संस्था में अच्छे पद पर सेवारत्त है, तो वह भी अपने से ऊपर स्तर के लड़के या लड़की से ही शादी की अधिकांश इच्छा रखता है। कई बार यह भी देखा जाता है कि हमें ऐसा परिवार या युवक चाहिए, जिसके यहां वृद्ध/बीमार मां-बाप तथा अन्य ऐसे भाई-बहन न हों, जो संबंधित लड़के पर आश्रित हों, अर्थात् वह अकेला हो। यही नहीं अपितु किसी अच्छे शहर/कश्बे में अपनी अच्छी-खासी जमीन/मकान हो और स्वयं का वाहन हो। इन विचारों को मन से हटाकर वृद्ध/रुग्ण परिजनों की सेवा की भावना और भरे-पूरे संयुक्त परिवार में हंसी-खुशी रहने की इच्छा ही समस्या के समाधान के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है।
04- आज आवश्यकता इस बात की है कि हरेक युवक-युवती अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर को ध्यान में रखते हुए ऐसी अनावश्यक शर्त न रखें, जिससे कि किसी प्रकार शादी तय करने में विलम्ब हो। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज यदि लड़के वाले विवाह योग्य लड़की पाने में विभिन्न समस्याओं के कारण परेशान हैं, तो यही स्थिति लड़की वाले परिवार को भी अपने लड़कों के विवाह के समय झेलनी पड़ेगी। लेकिन अदूरदृष्टि के कारण हर कोई वर्तमान खुशी को ही अधिक महत्व देता है।
05- बच्चों के परिजन या स्वयं बच्चे (युवक-युवतियां) अपनी पारिवारिक हैसियत व स्वयं की योग्यता को ध्यान में रखते हुए ही रिश्ते निर्माण के संबंध में सार्थक प्रयास करें, तो बच्चों की समय से शादी भी हो सकेगी और रिश्ते भी अनुकूल मिल सकेंगे।
06- आज जो विकट समस्या सामने आ रही है, वह है कुछेक युवतियों की महत्वाकांक्षा। अपने स्तर से बड़ी हैसियत के युवक और वह भी हर दृष्टि से पूर्णतः सुयोग्य व सुसंपन्न हो, उससे ही शादी करने की अभिलाषा रखना, इस कार्य में अवरोध पैदा कर रहा है। इस प्रकार की मनोवृत्ति को छोड़कर समझौतावादी विचारधारा बनायें या अपने अनुकूल, जो सुखी-संपन्न दाम्पत्य जीवन निर्वाह करा सके, उससे रिश्ते बनाने में सहमति देना ही उचित प्रतीत होता है।
07- वर्तमान की विषमताओं को देखते हुए यह भी उपयुक्त लगता है कि युवा-युवतियां जहां भी अपनी शिक्षा-दीक्षा व धनार्जन हेतु सेवारत्त रहते हैं, यदि वे चाहते हैं, तो अपने समवर्गीय युवक-युवतियों से स्वयं वैवाहिक संबंध स्थापित करने की पहल कर सकते हैं, लेकिन इसमें दोनों पक्षों को यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि जिसके साथ संबंध के बारे में सोचा जा रहा है, वह अच्छे संबंधों की अहमियत को समझता हो, और आजीवन संबंध निभाने की सहृदय इच्छा व विश्वशनीयता रखता हो। इसमें इस बात को भी गंभीरता से समझने व ध्यान देने की आवश्यकता उचित प्रतीत होती है कि जहां तक हो सके वह हम-उम्र लड़का या लड़की, उनकेे आपसी सामाजिक/पारिवारिक रिश्ते-नातों, कुल-खानदान, मर्यादा-व्यवस्था के तहत अनुकूल हो। जिससे उनके संबंधित समाज व परिवार इस प्रकार के रिश्ते को सहर्ष स्वीकार कर सकें और आपसी प्रेम-सौहार्द भी बना रहे।
इस प्रकार वैवाहिक संबंध/रिश्तों को बनाने में आ रही अड़चन/परेशानी, उसके कारण, दुष्प्रभाव तथा इनके सार्थक समाधान का यहां विभिन्न महत्वपूर्ण व ज्वलंत बिंदुओं के आधार पर विवेचना करने का प्रयास किया गया है, जो कि सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर गंहन अध्ययन, अनुभव व चर्चा-परिचर्चा के परिणामों को मध्यनजर रखकर इस आशा एवं विश्वास के साथ तैयार किया गया है, कि इस समस्या के प्रति सभी परिजन/अभिभावक व स्वयं युवक-युवतियां संवेदनशील/जागरूक होकर गंभीरता से इससे होने वाले लाभ/हानि को समझेंगे और बताये गये, समाधान व उपायों को अवश्य अपनायेंगे तथा परिवार/समाज में रिश्तों की महानता/प्रगाढ़ता को बनाये रखने में अपना अमूल्य योगदान देंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ कि वैवाहिक रिश्ते बनाने से समाज में उदारतापूर्ण भाव जागृत हो और इस आलेख की सार्थकता भी सिद्ध हो सके।
सादर सद्भावनाओं सहित, शुभम् भूयात्,
— शम्भु प्रसाद भट्ट ‘स्नेहिल’

शम्भु प्रसाद भट्ट 'स्नेहिल’

माता/पिता का नामः- स्व. श्रीमति सुभागा देवी/स्व. श्री केशवानन्द भट्ट जन्मतिथि/स्थानः-21 प्र0 आषाढ़, विक्रमीसंवत् 2018, ग्राम/पोस्ट-भट्टवाड़ी, (अगस्त्यमुनी), रूद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड शिक्षाः-कला एवं विधि स्नातक, प्रशिक्षु कर्मकाण्ड ज्योतिषी रचनाऐंः-क. प्रकाशितःः- 01-भावना सिन्धु, 02-श्रीकार्तिकेय दर्शन 03-सोनाली बनाम सोने का गहना, ख. प्रकाशनार्थः- 01-स्वर्ण-सौन्दर्य, 02-गढ़वाल के पावन तीर्थ-पंचकेदार, आदि-आदि। ग. .विभिन्न क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्र/पत्रिकाओं, पुस्तकों में लेख/रचनाऐं सतत प्रकाशित। सम्मानः-सरकारी/गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के तीन दर्जन भर से भी अधिक सम्मानोपाधियों/अलंकरणों से अलंकृत। सम्प्रतिः-राजकीय सेवा/विभिन्न विभागीय संवर्गीय संघों तथा सामाजिक संगठनों व समितियों में अहम् भूमिका पत्र व्यवहार का पताः-स्नेहिल साहित्य सदन, निकटः आंचल दुग्ध डैरी-उफल्डा, श्रीनगर, (जिला- पौड़ी), उत्तराखण्ड, डाक पिन कोड- 246401 मो.नं. 09760370593 ईमेल [email protected]