अपने निवास पर पहुँचने के बाद महामंत्री विदुर ने राजकुमार युधिष्ठिर को बुलावा भेज दिया। संदेश पाकर युधिष्ठिर तत्काल वहाँ उपस्थित हो गये। उन्होंने महामंत्री का चरण स्पर्श किया और ‘आयुष्मान भव, यशस्वी भव’ का आशीर्वाद पाया। फिर वे संकेत पाकर महामंत्री के निकट ही बैठ गये।
युधिष्ठिर के स्वभाव में धैर्य की प्रधानता थी, इसलिए उन्होंने बुलाने का कारण जानने की कोई उत्सुकता नहीं जतायी और विनीत भाव से बैठकर आर्य विदुर के बोलने की प्रतीक्षा करते रहे। अन्त में कुछ क्षणों के बाद विदुर ने मौन तोड़ा- ”वत्स! क्या तुम्हें अनुमान है कि मैंने तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया है?“
युधिष्ठिर ने मधुर वाणी में उत्तर दिया- ”क्षमा करें पितृव्य! मुझे इसका कोई अनुमान नहीं है, किन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि आपका बुलावा अकारण नहीं हो सकता।“
विदुर मुस्कराये- ”सत्य है वत्स! मैंने तुम्हें एक विशेष प्रयोजन से बुलाया है।“ फिर कुछ क्षण रुककर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले- ”वत्स! तुम कुरु राजकुमारों में सबसे वरिष्ठ हो, अपने पिता महाराज पांडु का राज्य अब तुम्हें ही सँभालना है। मैंने तुम्हें इसकी तैयारी के लिए बुलाया है।“
”मुझे क्या तैयारी करनी है, तातश्री?“ युधिष्ठिर ने जिज्ञासावश पूछा।
”हस्तिनापुर जैसे विशाल साम्राज्य को सँभालना सरल नहीं है। इसके लिए सम्राट में अनेक गुणों का समावेश होना चाहिए। विशेष रूप से उसे धर्मशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का गहन अध्ययन करना चाहिए।“
”आचार्य कृप ने हमें ये शास्त्र पढ़ाये थे और मैंने इन दोनों शास्त्रों का विशेष अध्ययन किया है, पितृव्य!“ युधिष्ठिर ने स्पष्ट कहा।
”बहुत उत्तम! फिर भी बहुत सी बातें हैं, जो गुरुकुल में नहीं पढ़ायी जा सकतीं। उनके लिए विशेष प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता होती है, वत्स!“
”जो आज्ञा पितृव्य! मैं यह प्रशिक्षण लेने के लिए प्रस्तुत हूँ।“
”यह प्रशिक्षण तुम्हें मैं स्वयं दूँगा, क्योंकि मैंने भी यह प्रशिक्षण लिया है। वैसे तुम्हें बाहर भी योग्य आचार्यों के पास भेजा जा सकता था, किन्तु हस्तिनापुर की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा करना उचित नहीं समझा गया। इसलिए यहीं तुम्हारे विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी है।“
”उचित है। इस हेतु मुझे क्या करना होगा, पितृव्य?“
”इसके लिए तुम्हें नित्य सायंकाल एक घड़ी के लिए मेरे निवास पर आना होगा। इस प्रशिक्षण का समाचार गुप्त ही रखना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति जिज्ञासा व्यक्त करता है, तो उसको केवल यही बताना है कि राजकाज में मंत्रणा हेतु मैं महामंत्री के पास जा रहा हूँ।“
”जो आज्ञा पितृव्य! मैं प्रतिदिन निश्चित समय पर आपकी सेवा में उपस्थित हो जाया करूँगा।“
युधिष्ठिर के इतना कहते ही महामंत्री विदुर ने उनको जाने की आज्ञा दे दी और अगले दिन उपस्थित होने का आदेश दिया। आज्ञा पाते ही युधिष्ठिर उनका अभिवादन करके अपने निवास के लिए चल दिये।
अगले ही दिन से युधिष्ठिर का प्रशिक्षण प्रारम्भ हो गया। वे निश्चित समय पर आ गये थे। अपने ही कक्ष में विदुर ने उनको राजधर्म की शिक्षा दी। यद्यपि यह सब आचार्य कृप उनको पढ़ा चुके थे और सब कुछ युधिष्ठिर को कंठस्थ था, तथापि उन्होंने सबको दोहराना उचित समझा जिससे यह ज्ञान उनके मन में और अधिक गहराई से आ गया। राजधर्म की शिक्षा के बाद उनको धर्मशास्त्र भी पढ़ाया गया और उनका ज्ञान भी युधिष्ठिर को गहराई से हो गया। इस शिक्षा में लगभग 2 महीने लग गये।
राजनीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र की शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद युधिष्ठिर समझ रहे थे कि अब मेरी शिक्षा पूर्ण हो गयी, लेकिन विदुर ने उनसे आगे भी आते रहने के लिए कहा। अगले दिन जब युधिष्ठिर आये, तो विदुर ने बड़े स्नेह से उनसे कहा- ”वत्स युधिष्ठिर ! तुम्हारी राजनीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र की शिक्षा पूर्ण हो गयी है, लेकिन अभी प्रशिक्षण पूर्ण नहीं हुआ। अभी तुम्हें एक विशेष शिक्षा देना शेष है।“