नींदें
अपनी नींदें छोड़कर तुम्हारी
नींदें सजाई थीं
हाँ जिंदगी कहने को मेरी थी
पर साँसें पराई थी
भूला दिए थे कुछ ख्वाब मैंने
तेरी खुशियों की खातिर
हाँ खुशियां तो तेरी थीं
पर आंखें मैंने भिगोई थीं
चल रही थी जिंदगी ट्रैक पर
कहाँ मंजिल आयी थी
हाँ उदासियाँ तो मेरी थीं
पर हँसीं मैंने गंवाई थी
तुम कहते थे न वक़्त मेरा है
जब जागो तभी सवेरा है
हाँ सवेरा तो था हर दिन
पर आंखों में नमी छाई थी
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़