कविता

यूँ  ही खुद को मिटा दिया

यूॅं ही सब कुछ समेटते-समेटते ,
खुद को जाने कब कहाॅं  मिटा दिया ,
किसी ने पूछा अगर अपना हाल ,
यूॅं ही बस आहिस्ता से मुस्कुरा दिया ,
बचा ही क्या था जलती लकड़ियों में -२,
हृदय तिनका मात्र था वो भी जला दिया ,
यूॅं ही सुलगते-सुलगते एक अग्निकण ने ,
देखते ही देखते मन श्मशान बना दिया ,
मिल भी जाएं अगर
सितारे अब मुट्ठी भर ,
चमकेंगे किस तरह जब
आसमाॅं ही भिगो दिया ,
वक़्त रहते सम्भल जाना
ही    सबसे     भला    है ,
लकीर पीटने से क्या होगा ,
जब सब कुछ लुटा दिया ,
क्या कर लोगे गर भर भी
लिया  चाॅंद   मुट्ठी   में ,
चाॅंदनी तो तब बिखेरेगा जब ,
उसको आजाद करा दिया !
— कल्पना चौधरी

कल्पना चौधरी

बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश