मास्टरजी का चांटा
बचपन में स्कूल में सर मैडम नहीं बल्कि मास्टरजी होते थे। जितना डर घर में अम्मा बाबूजी से लगता था उतना ही मास्टरजी से लगता था। उन्हें हम विद्यार्थियों को डांटने के साथ मारने मुर्गा बनाने बेंच पर पूरे पीरियड खड़ा रखने इत्यादि सजा देने के सारे अधिकार प्राप्त थे। मेरे बाबूजी पोस्टमास्टर थे। उस समय मोबाइल फोन कोरियर व्हाट्सएप ईमेल जैसी कोई बीमारी नहीं थी। पोस्ट ऑफिस ही एकमात्र संदेश प्रेषण का माध्यम था। स्कूल के मास्टरजी जब भी पोस्ट ऑफिस आते थे तो बाबूजी उनसे मेरी पढ़ाई से अधिक मेरे व्यवहार एवम शैतानियों की पूरी जानकारी ले लेते थे। इसलिए मुझे बहुत सतर्क सजग सावधान रहना होता था। हमारे हेडमास्टर जी हमें अंग्रेजी भी पढ़ाते थे रेन एवम मार्टिन की लाल किताब से। एक बार स्पेलिंग की गलती के कारण मास्टरजी ने मेरे गाल पर एक करारा चांटा जड़ दिया। दर्द के साथ आंख में आंसू तथा गाल लाल होना सब स्वाभाविक था। घर पर बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। वरना घर पर भी एक चांटा और पड़ता। उस समय स्कूल में इतनी अच्छी पढ़ाई होती थी कि ट्यूशन कोचिंग की कोई आवश्यकता थी ही नहीं। घर पर भी होम वर्क तथा परीक्षा की तैयारी स्वयं ही कर लिया करते थे। परिवार के किसी भी बड़े को कोई मतलब भी नहीं था। हिन्दी मीडियम सरकारी स्कूल ही एक मात्र विकल्प था पढ़ाई के लिए। पर सरकारी स्कूल की पढ़ाई भी इतनी उत्कृष्ट होती थी कि अभिभावक बच्चों की पढ़ाई परीक्षा की और से पूर्ण निश्चिंत रहते थे। मास्टरजी के चांटे से मुझे सीख मिली एवम पढ़ाई अधिक मन लगा कर करने लगा। उसी चांटे से मिली सीख के कारण 1963 की राजस्थान बोर्ड की कक्षा दस की बोर्ड परीक्षा में सेठ आनंदीलाल पोद्दार हाई स्कूल भवानी मंडी जिला झालावाड़ राजस्थान में दूसरा स्थान एवं पूरे राजस्थान की मेरिट सूची में चौदहवां स्थान प्राप्त कर पाया। जीवन संध्या में जब अपनी उपलब्धियों की सूची किसी को अपना बायो डाटा भेजने के लिए लिखता हूं तो स्वीकार करता हूं कि इन उपलब्धियों का एक श्रेय मास्टरजी के उस चांटे को भी है ही।
— दिलीप भाटिया