यादें
यादें विस्मृत मन की परत
सी होती हैं..
पन्नै दर पन्ने अचानक किताब
बन जाती है
कभी अधजली ,कभी तीक्ष्ण गंध
सी छूने लगती है
उमड़ते घुमड़ते चलचित्र चल पड़ते है बिना रोक टोक के
कई सवाल कौंध उठते हैं मानस पटल पर
क्या रह गया इन जीवन के उलझी लताओं में
कहाँ ठहर गया तैरती हुई यादों के जखीरे में
सलवटें पड़ कर चिढ़ा रही थी कंपित यादें
जीवन में क्या पाया और खोया ??
कई मोड़ से गुजरते हुए मन का वह घुमावदार रास्ता ….
मन की तलहटी में बैठी कुछ कड़वी सी
होठों पर तैरती कभी मंद मुस्कान सी
आँखों में झिलमिलाती आँसु नीर सी
चेहरे पर तैरती भोर की रक्तिम आभा सी
बहती हुई कलकल नदी की धार सी
जल में तैरती कागज के नाव सी
छोड़ आते है !!!
चुभते तलछट को….
बढ़ जाते है एक नई आशा की ओर…
प्रतिक्षण उलझाते उन्माद को….
लेखा जोखा से परे हटकर…
चलो चलते है विराम देकर…
जीवन के उस पार जाकर…
सारी चिंताओं से मुक्त होकर…
चलो चलते है,चलो चलते है.।
— सपना चन्द्रा