जिन दिनों महामंत्री विदुर राजकुमार युधिष्ठिर को युवराज पद के लिए गोपनीय रूप से तैयार कर रहे थे, तो दुर्योधन भी शान्त नहीं बैठा था। उसके मामा शकुनि ने भी अपना छोटा सा गुप्तचर तंत्र विकसित कर रखा था, जो बहुत-सी सूचनायें उन तक पहुँचाया करते थे। उन्हीं में से एक ने शकुनि के कान में यह सूचना डाल दी कि आजकल ज्येष्ठ पांडव राजकुमार युधिष्ठिर महामंत्री विदुर के निवास पर सायंकाल नियमित जाते हैं और वहाँ लगभग एक घड़ी ठहरते हैं। वह यह नहीं बता सका कि वे किसलिए जाते हैं और क्या वार्ता करते हैं, क्योंकि विदुर के निवास के भीतर जाने का कोई उपाय उसके पास नहीं था।
परन्तु शकुनि को यह अनुमान लगाने में कोई देर नहीं लगी कि अवश्य ही विदुर युधिष्ठिर को युवराज पद के लिए तैयार कर रहे होंगे, ताकि वे राजकार्य को सँभाल सकें। सम्भव है कि यह तैयारी पूरी होते ही वे युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक करने का उद्योग करें। यदि ऐसा हुआ तो युधिष्ठिर के हाथों में समस्त शक्तियाँ आ जायेंगी और शकुनि का वह उद्देश्य रखा रह जाएगा, जिसके कारण वह अपनी बहिन गांधारी के विवाह के समय से ही हस्तिनापुर में रह रहा था और यहाँ समस्त मान- अपमान सहन कर रहा था। यद्यपि किसी ने उससे स्पष्ट नहीं कहा था कि वह यहाँ अवांछित है और उसकी कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और महामंत्री विदुर सहित अनेक लोगों के हाव-भाव से उसके प्रति उपेक्षा और वितृष्णा का भाव स्पष्ट हो जाता था। हालांकि शकुनि कभी राजसभा में नहीं जाता था, लेकिन महल में आते-जाते अनेक लोगों से उसकी भेंट हो जाती थी, जो उसकी उपेक्षा करके निकल जाते थे।
इतना होने पर भी किसी भी व्यक्ति में यह कहने का साहस नहीं था कि शकुनि को राज्य से बाहर किया जाये, क्योंकि यहाँ उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसका कारण यह था कि महाराज धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी दोनों ही शकुनि पर बहुत विश्वास करते थे और एक प्रकार से उस पर ही निर्भर थे। कहने को विदुर महामंत्री थे और महाराज राजकार्य में प्रायः उनकी ही सलाह से निर्णय करते थे, फिर भी वे विदुर पर अधिक विश्वास नहीं करते थे, क्योंकि विदुर ने उनको दुर्योधन के पैदा होते ही उसे त्यागने की सलाह दी थी और विदुर ने ही यह कहा था कि कोई जन्मांध राजा नहीं हो सकता। इसलिए धृतराष्ट्र अपने पुत्र मोह के कारण इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि विदुर मेरे पुत्रों की तुलना में पांडु के पुत्रों को अधिक स्नेह करते हैं, जो सत्य भी था।
इन सब कारणों से महाराज धृतराष्ट्र अपनी पत्नी के भाई शकुनि को ही हस्तिनापुर में अपना सबसे बड़ा हितैषी समझते थे और अपने सभी पारिवारिक मामलों में शकुनि की सलाह को ही मानते थे। उन्होंने एक प्रकार से शकुनि को ही अपने सभी पुत्रों का संरक्षक बना दिया था, जिनको वह जैसी चाहे वैसी सलाह दिया करता था। एक प्रकार से राजमहल में शकुनि का ही शासन चलता था। अपनी इस स्थिति का लाभ उठाते हुए शकुनि ने अपने विश्वस्त व्यक्तियों को मंत्री के रूप में राजसभा में रखवा दिया था और उनके माध्यम से समस्त राजकार्य की जानकारी रखता था।
हस्तिनापुर में रहने का उसका मुख्य उद्देश्य कुरुवंश का विनाश करना था, जिसके लिए वह लम्बी योजना बनाकर रह रहा था। वह पांडु और धृतराष्ट्र के पुत्रों के बीच वैमनस्य के बीज बो रहा था और उस वैमनस्य को लगातार बढ़ाता रहता था, ताकि समय आने पर कुरुवंश की वे दोनों शाखायें आपस में लड़कर नष्ट हो जायें। पितामह भीष्म ने बलपूर्वक उसकी बहिन गांधारी को एक जन्मांध के साथ विवाह करने को बाध्य किया था, जिसका बदला वह इसी प्रकार चुकाना चाहता था। गांधारी तो इस घोर अन्याय का सांकेतिक विरोध अपनी आँखों पर भी पट्टी बाँधकर कर चुकी थी, लेकिन उसके भाई शकुनि का प्रतिशोध अभी पूरा नहीं हुआ था। उसके सारे कार्य कुरुवंश से प्रतिशोध लेने की दिशा में ही होते थे। परन्तु वह इतना सावधान रहता था कि किसी को भी उसके वास्तविक उद्देश्य के बारे में कोई प्रमाण और संकेत तक नहीं मिलता था, यद्यपि सभी यह अनुभव कर रहे थे कि शकुनि के कारण ही धृतराष्ट्र के सभी पुत्र उद्दंडता करने लगे हैं और पांडवों से द्वेष रखते हैं।
जब शकुनि को अपने गुप्तचर से यह सूचना मिली कि पांडव राजकुमार युधिष्ठिर प्रतिदिन ही महामंत्री विदुर के निवास पर जाते हैं और वहाँ एक घड़ी ठहरते हैं, तो उसे यह अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि युधिष्ठिर को युवराज पद के लिए तैयार किया जा रहा है। यदि ऐसा हो जाता, तो राजकुमार दुर्योधन को युवराज पद नहीं मिल पाता और शायद शकुनि का वहाँ रहना भी कठिन हो जाता, इसलिए उसने इस संभावित निर्णय का हर स्तर पर विरोध करने की पूर्व तैयारी करने का निश्चय किया।