दम घुटता है ऐसी सोच से
सचमुच आजकल जब भी लोग पुरुष पक्ष को लेकर बस ये कह दें कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है इसलिए पुरुष को दोष देना बेकार है स्त्री ही दोषी है ! ये सरासर ना इंसाफ़ी होगी । तब क्या था जब सतीप्रथा को पुरुष प्रधान समाज में नियम बनाकर लागू किया गया था ?
हर स्त्री को पीढ़ी दर पीढ़ी यही सिखाया गया कि वो किसी भी नियम के ख़िलाफ़ न जाए और यदि जाएगी तो दंड भोगेगी ? विधवा होने पर सिर मुंडवाने की प्रथा ये किसने बनाई थी । हर सास अपनी बहु की स्त्री होकर दुश्मन बनी क्यों ये जाना कभी किसी ने ? अरे उसको तो खुद ही दबाया गया और डराया गया, घर की हर प्रधान महिला को सख़्त आदेश जारी किए गए कि घर की कोई भी स्त्री बग़ावत या अपने अधिकार की बात न करे ये उसकी ज़िम्मेदारी है ।
महान पुरुष गिनती के ही हैं जिन्होंने विधवा विवाह, सतीप्रथा आदि को मूल से मिटाने के लिए क्या-क्या न किया । फिर नए-नए हथकंडे अपना लिए रूढ़ियों के दफ़न होते ही ! अपनी पिपासा मिटाने को स्त्री को भोग की वस्तु समझता है मात्र ? भयानक हादसों को निर्मम पुरुष ही अंजाम दे रहा है ।
स्त्री-स्त्री का रेप करती सुनी है ? बता दीजिए कितनी बार सुनी और देखी है । ऐसिड अटेक बस इसलिए कि तुम उसे स्वीकार्य नहीं । अगर इतिहास को खंगाल लोगे तो तुम्हें स्त्री पर स्त्री का हावी होना सिर्फ़ पारिवारिक ईर्ष्या या अपने करियर को लेकर दिखेगा ? रेप,मर्डर, एसिड अटैक आदि में उसका नाम उछलता नहीं । एक स्त्री दूसरी स्त्री से ईर्ष्या भी इसी पुरुष के कारण करती है ।
यदि घर में एक भाई अपनी स्त्री को इज़्ज़त नहीं देता, वहीं दूसरा भाई अपनी पत्नी को सिर-आँखो पर बिठा कर रखता है तो इस बात पर ईर्ष्या करेगी । अगर ससुर जी ने अपनी बहू के खाने की तारीफ़ कर दें तो बहू बन गई सासू माँ की ईर्ष्या और कर दिया आग में घी डालने का काम पुरुष ने । फिर वो लड़ेंगी-झगड़ेंगी एक- दूसरे से और क्या ?
सामाजिक तौर पर एक-दूसरे को सूली चढ़ाकर क्या जेल जाएँगी ।कितने केस सुन लिए । और कभी-कभार जब एक स्त्री दूसरी स्त्री के द्वारा की गई पारिवारिक हिंसा का शिकार बनती है तो इसमें सबसे बड़ा सहयोगी पुरुष ही होता है । अगर वो चाहे तो ऐसे हादसे भी न हों । महान पुरुषों की गिनती की जा सकती है किंतु निर्मम, हत्यारे, रेपिस्ट, भोगी-विलासी पुरुष अनगिनत हैं समाज में जो ऑफ़लाइन-ऑनलाइन अपनी नज़र गड़ा कर बस बैठे हैं कुकर्म करने को ।
कितना व्याख्यान दूँ शायद शब्द कम पड़ जाएँगे । स्त्री को आगे बढ़ते देख भीतर ही भीतर उसका पौरुष बौखलाता रहता है इस पुरुष प्रधान समाज में । आज भी दो बेटियाँ हो जाएँ तब भी बेटे की चाह मन में सुलगती रहती है । ‘एक बेटा तो होना ही चाहिए ।’
यूथ इंडिया एसोसिएशन के उपाध्यक्ष डॉ. ललित कौशिक ने बताया कि भारत में अभी भी कई ऐसे मंदिर हैं जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। अभी भी ऐसे कर्मकांड जारी हैं जिन्हें केवल पुरुष ही अंजाम दे सकते हैं। अर्थशास्त्र के प्राध्यापक डॉ. ललित ने पुरुष प्रधान समाज पर कटाक्ष करते हुए कहा कि हमारे देश में जहां हमारे देश में महिला प्रधानमंत्री रह चुकी हों, जहाँ लड़कियाँ माउंट एवरेस्ट पर विजय पा चुकी हो, उसी समाज में महिला और पुरुष के बीच का विरोधाभास और भी नंदनीय है। इस देश में हमेशा स्त्री को माँ,बहन या फिर बेटी के रूप में देखा गया है, फिर भी इतिहास गवाह है कि पारंपरिक और सामाजिक दृष्टिकोण से स्त्रियों की हमेशा उपेक्षा की गई है।
वास्तव में वर्तमान भी गवाह है अगर स्त्री को घर में मान- सम्मान मिले और उसको उपेक्षित व्यवहार से प्रताड़ित न होना पड़े, पर-पुरुष की वहशी नज़रों से वह अपनी अस्मिता को बचा सके तो वह कभी भी चंडी का रूप नहीं धारेगी उसे लांछन लगवाने का शौक़ नहीं है ।
ये बात ग़लत नहीं लिखी थी मैंने कुछ दिनों पहले ‘वो करे तो पुरुषत्व मैं करूँ तो लांछन……’
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’