कविता

ये कैसा दिन आया जग में

ये कैसा दिन आया जग में
जन्मदाता को पूत बैरी समझा
जिसने पाला और पोशा था
उनका दर्द कोई ना समझा

ये कैसा दिन आया जग में
बुजुर्ग पाता है घर में दुत्कार
जिनके काँधे परिजन  पलते थे
उनको ना मिलता घर में सत्कार

ये कैसा दिन आया जग में
खिलाने वाले की थाली में दाल नहीं
एक दर्जन बच्चे को था कभी पाला
उनके लिये रोटी दाल का जुगाड़ हटी

ये कैसा दिन आया जग में
घर के मालिक को घर में शरण नहीं
वृद्धाश्रम भेज रहा है औलाद
कुपूत के ऑखों में शरम  नहीं

ये कैसा दिन आया जग में
ममता की देवी को नमन नहीं
जिसने ऑचल की छाया दिया था
उनको ही खुद की वतन  नहीं

ये कैसा दिन आया जग में
दूध की कीमत पूत भूल गया
माता पिता दादा दादी को
अपने मन से अछूत  किया

ये कैसा दिन आया जग में
कुपूत बन बैठा बुजुर्ग का दुश्मन
ये कैसा चलन शुरू हो गया
जब अपना खून बना गया उलझन

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088