शकुनि पहले ही ज्येष्ठ कौरव राजकुमार दुर्योधन को इस बात का विश्वास दिला चुका था कि महाराज धृतराष्ट्र के बाद हस्तिनापुर के सिंहासन पर उसका ही अधिकार बनता है और समय आने पर उसे वह अधिकार अवश्य दिलाया जाएगा। युधिष्ठिर की तैयारी की भनक लगते ही उसने समझ लिया कि अब दुर्योधन को खुलकर युवराज पद के लिए तैयार करने का समय आ गया है। सबसे पहले वह दुर्योधन को इस बात के लिए पक्का कर देना चाहता था कि राजसभा में कभी इस विषय पर चर्चा होने पर उसे इस बात का विरोध किन आधारों पर और किन शब्दों में करना है, क्योंकि वह स्वयं तो राजसभा में जा नहीं सकता था। उन दिनों दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण और शकुनि लगभग प्रतिदिन सायंकाल मिला करते थे और आमोद प्रमोद किया करते थे। इसी को उसने अच्छा अवसर समझा और दुर्योधन से स्पष्ट वार्ता करने का निश्चय कर लिया।
उस दिन सायंकाल शकुनि के कक्ष में जब प्रतिदिन की तरह दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण प्रविष्ट हुए, तो उन्होंने शकुनि को विचारों में मग्न पाया। उसके मुख पर वैसी प्रसन्नता नहीं थी, जैसी प्रतिदिन हुआ करती थी। अभिवादनों के आदान-प्रदान के बाद दुर्योधन बोल ही पड़ा- ”मामाश्री, आज आपका मुखमंडल मलीन क्यों है? कौन-सी चिन्ता आपको खाए जा रही है? कहीं गान्धार से तो कोई दुःखद समाचार नहीं मिला है?“
शकुनि ने सिर उठाकर कहा- ”गान्धार में सब कुशल हैं, भाग्नेय! वहाँ की चिन्ता मुझे नहीं है। मैं तो तुम्हारे लिए चिन्तित हूँ।“
यह सुनकर सभी शकुनि की ओर ताकने लगे। दुःशासन से न रहा गया, बोला- ”भ्राताश्री के बारे में चिन्ता की क्या बात है, मामाश्री?“
”चिन्ता की बात ही तो है भाग्नेय! सभी ओर से सूचनाएँ मिल रही हैं कि हस्तिनापुर का जनसामान्य शीघ्र से शीघ्र युधिष्ठिर को युवराज पद पर देखना चाहता है। इसमें कोई भी देरी उनको सहन नहीं है।“
यह सुनकर सभी चिन्तित हो गये। वे यह जानते थे कि शकुनि ने भी अपना छोटा-सा व्यक्तिगत गुप्तचर तंत्र हस्तिनापुर में खड़ा कर लिया है, जो उनको सारी सूचनायें पहुँचाता रहता है। इसलिए यदि वे कह रहे हैं कि जनसामान्य में ऐसी धारणा पनप रही है, तो यह सत्य ही होगा।
यह सूचना दुर्योधन की सभी आशाओं को मिट्टी में मिला देने वाली थी। वह जानता था कि यदि एक बार युधिष्ठिर के हाथ में हस्तिनापुर की बागडोर आ गयी, तो वह और उसके सभी भाई साधारण राजपुरुष बनकर रह जायेंगे और उनको पांडवों की कृपा पर निर्भर रहना पड़ेगा। उसका अहंकार कभी ऐसा नहीं होने देना चाहता था। परन्तु इसे रोकने के लिए क्या किया जाये, यह उसके मस्तिष्क में नहीं आ रहा था। लेकिन शकुनि के रूप में उसके पास एक बड़ा सहायक है, वही इसके लिए कोई मार्ग निकालेंगे कि युधिष्ठिर युवराज घोषित न हों और दुर्योधन को यह पद मिल जाए।
यह सोचकर उसने शकुनि की ओर देखते हुए कहा- ”मामाश्री! युधिष्ठिर को युवराज बनने से रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए? हम कभी भी पांडवों की दया पर नहीं रहना चाहते।“
शकुनि को उसका प्रश्न उचित लगा। उसने कुछ सोचकर कहा- ”भाग्नेय! किसी को राज्य का युवराज बनाना या न बनाना राजसभा के हाथ में है। वह जो निर्णय करेगी, वह सबको मानना पड़ेगा। यदि राजसभा के अधिकांश लोग युधिष्ठिर के पक्ष में हुए तो फिर हमारे हाथ में कुछ नहीं रह जाएगा। अकेले महाराज यदि तुम्हारा पक्ष ले भी लें, तो भी वे अधिक कुछ नहीं कर पायेंगे, क्योंकि वे पूरी राजसभा के विरुद्ध कोई निर्णय नहीं कर सकते।“
शकुनि ने जो कहा था उसमें सत्य था। राजसभा में पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और महामंत्री विदुर का बोलबाला था। शेष सभी लोग उनकी राय पर अपनी सहमति ही जताते थे। ये तीनों निश्चित रूप से युधिष्ठिर के पक्ष में ही बोलेंगे और शेष लोग उसका अनुमोदन करेंगे। पूरी राजसभा में स्वयं दुर्योधन के अलावा ऐसा तो कोई भी नहीं था, जो खुलकर युधिष्ठिर का विरोध कर सके और अपने पक्ष का समर्थन कर सके। यह सत्य शकुनि भी जानता था। इसलिए उसके पास युधिष्ठिर को रोकने का कोई उपाय नहीं था।