संदूकों में बचपन
संदूकें अब तक ना खोलीं जिनमे था मेरा पूरा बचपन I
जिनमे थे गुड्डे और गुड़िया, हर कोने खुशियों कि पुड़िया I
जिनमे थे साबू और राका, बड़ी योजना छोटा खाका I
जिनमे थी कागज की नाव भी, चलती थी जो बिन बहाव भी I
जिनमे था लट्टू और कंचा, ना छल था ना कोई प्रपंचा I
जिनमे था गुल्लक एक टूटा, पैसा कम पर दंभ ना झूठा I
जिनमे थे कुछ गेंदें पुरानी, रोज का खेला नई कहानी I
जिनमे थी कुछ फटी पतंगें, हम भी उड़ते मस्त मलंगे I
जिनमे थे पिट्ठू के पत्थर, साधन कम पर खुशियां दम भर I
संदूकों को खोल रहा हूँ, बचपन को अब बोल रहा हूँ I
संदूकें ना बंद करूंगा, खुशियों का प्रबंध करूंगा I
छोटी हों या बड़ी हो खुशियां, अब उनमें ना लगेगा ताला I
संदूकें अब खुलीं रहेंगी, हँसेगा बचपन भोला-भाला I
— गगन मेहता