कविता

दिल का स्पंदन

दिल का भी अजीब मंथन है
जीवन के हर पल करता है
हमारे जीवन के लिए
बिना थके, बिना रुके
चलता ही रहता है
स्पंदन करता है।
कभी अवकाश नहीं लेता
कभी विश्राम नहीं करता
बस हमें देता ही है
अपने स्पंदन से जीवन।
विडंबना देखिये
जब हम निष्प्राण हो जाते हैं
तो भी कुछ पलों तक ये
अपना कर्म करता है,
हममें फिर से प्राण आने का
शायद इंतजार करता है,
विश्वास की ज्योति जगाए रखता है।
शरीर के हर अंग जब
साथ छोड़ देते हैं,
अपनी जिम्मेदारियों से
मुँह मोड़ लेते हैं,
तब थकहार कर बुझे मन से
ये भी मौन हो जाता है,
काल के आगे बेबस
दिल बिना स्पंदन के रह जाता है
बुझे मन से हमारा साथ छोड़
मौन हो जाता है,
दिल का स्पंदन भी
आखिरकार रुक ही जाता है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921