लेकिन दुर्योधन को कुछ न कुछ राय तो देनी ही थी, इसलिए शकुनि बोला- ”भाग्नेय! अभी तो यह विषय राजसभा में विचार के लिए आया ही नहीं है, लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि शीघ्र ही आएगा और अधिकतम संभावना यही है कि युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक करने का निर्णय कर लिया जाएगा। लेकिन तुम तो वहाँ रहोगे ही, इसलिए इस निर्णय का खुलकर विरोध करना और सम्भव हो तो उसे टलवाने का प्रयास करना। इससे अधिक अभी कुछ नहीं किया जा सकता।“
यह सुनकर दुर्योधन आदि की चिन्ता और अधिक बढ़ गयी। दुःशासन दुःखी स्वर में बोला- ”मामाश्री! क्या युधिष्ठिर के युवराज बन जाने पर हमारे सभी अधिकार समाप्त हो जायेंगे? फिर हम क्या करेंगे?“
”ऐसा नहीं होगा, भाग्नेय! अभी तो महाराज ही सिंहासन पर हैं। उनके रहते हुए तुम्हारे अधिकारों में कोई कटौती नहीं होगी। अभी कई वर्ष तक तो युवराज रहते हुए भी युधिष्ठिर कार्य कर सकते हैं, परन्तु उनके पास तुम्हारे अधिकारों में कटौती करने का कोई अधिकार नहीं होगा। यह कार्य महाराज ही कर सकते हैं। इसलिए अभी तुम निश्चिन्त रह सकते हो।“
यह सुनकर दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण ने भी चैन की साँस ली। वे सोच रहे थे कि जब तक महाराज हैं, तब तक हम कोई न कोई उपाय खोज लेंगे कि युधिष्ठिर राजसिंहासन न पा सकें। वे जानते थे कि मन ही मन महाराज भी अपने बाद अपने ही पुत्र दुर्योधन को राजा बनाना चाहते हैं, इसलिए वे युधिष्ठिर को सिंहासन सौंपना अधिक से अधिक टालने का प्रयत्न करेंगे।
लेकिन एक प्रश्न दुर्योधन के मस्तिष्क में घूम रहा था। वह बोला- ”मामा श्री ! मैं युधिष्ठिर को युवराज बनाने का विरोध किस आधार पर करूँगा।“
दुर्योधन का प्रश्न समयोचित था। सभी लोग इस पर विचार करने लगे, लेकिन सदा की तरह शकुनि को छोड़कर किसी के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। शकुनि ने कुछ सोचकर दुर्योधन की ओर मुख करके कहा- ”भाग्नेय ! यह तो सत्य है कि अधिकांश तर्क युधिष्ठिर के पक्ष में जाते हैं। लेकिन हमारे तर्क भी मजबूत हैं। हमारा पहला तर्क तो यह होगा कि पांडु राजा थे, वे अपना राज्य आपके पिताश्री को सौंप गये थे। अब उनकी मृत्यु हो जाने के बाद उनका या उनके पुत्रों का कोई अधिकार नहीं रह गया है। इसलिए राज्य पर पूरा अधिकार आपके पिताश्री का है। इसीलिए उनके सबसे बड़े पुत्र होने के कारण आपको युवराज बनने का पूरा अधिकार है। अन्य किसी का कोई अधिकार नहीं बनता।“
शकुनि की इस बात पर सभी ने सहमति में सिर हिलाया। हालांकि सभी यह भी जानते थे कि यह तर्क बहुत निर्बल है, क्योंकि पांडु वन को जाते समय राज्य धृतराष्ट्र को केवल देखरेख के लिए सौंप गये थे, ताकि राज सिंहासन खाली न रहे। इससे धृतराष्ट्र का राज्य पर अधिकार नहीं हो जाता। वे राज्य करने के अयोग्य थे, यह तो पहले ही सिद्ध हो चुका था और इस पर सबकी स्वीकृति भी मिल चुकी थी। तभी तो पांडु को राजा बनाया गया था। लेकिन सभी ने इस बात को उपेक्षित करना ही उचित समझा।
शकुनि ने आगे कहा- ”भाग्नेय! आपका दूसरा तर्क यह होगा कि युधिष्ठिर पांडु की वैध सन्तान नहीं हैं, क्योंकि पांडु सन्तान उत्पन्न करने के अयोग्य थे और युधिष्ठिर का जन्म नियोग से हुआ है। जबकि आप अपने पिता की वैध सन्तान हैं।“
यह तर्क सुनकर सबने प्रसन्नता की साँस ली, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह तर्क बहुत सबल था। वे सब अपने उत्साह में यह भूल गये कि कौरवों के पिता धृतराष्ट्र का जन्म भी नियोग से हुआ था। इसलिए यदि उनका तर्क माना जाए, तो वे भी सिंहासन के अयोग्य सिद्ध होते हैं।
ये दोनों प्रमुख तर्क सुनकर दुर्योधन को प्रसन्नता हुई। अब उसके पास कहने के लिए कुछ तर्क तो थे, भले ही वे बहुत ही निर्बल थे। लेकिन शेष कार्य वह अपने पिता की अंधता आदि का उल्लेख करके कर सकता था।
शकुनि ने दुर्योधन को चेतावनी देते हुए कहा- ”भाग्नेय! आपकी इन बातों का राजसभा में बहुत विरोध किया जाएगा, लेकिन आप अपनी बात पर डटे रहना और किसी की कोई बात स्वीकार मत करना, भले ही निर्णय आपके विपरीत किया जाए।“ इस पर दुर्योधन ने उसको सान्त्वना देते हुए कहा- ”मामाश्री! आप निश्चिन्त रहिए। मैं ऐसा ही करूँगा और राजसभा में उपस्थित मेरे भाई भी मेरा समर्थन करेंगे।“
यह निश्चय कर लेने के बाद उनका विचार विमर्श समाप्त हो गया और वे अपने-अपने स्थान पर चले गये।