दोस्तों, आज इस इक्कीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते हम शिक्षित तो खूब हुए पर हमने प्रकृति को ध्वंस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी I कभी-कभी तो यूँ लगता है कि हमारी सारी प्रगति और उन्नति के मूल में यह विध्वंस ही छिपा है I हमने प्रकृति का सारा संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है I जब कभी सुनामी या उत्तराखण्ड जैसी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो हम इस पर खूब भाषणबाज़ी करते हैं पर अगले ही क्षण फिर से इससे खिलवाड़ करने लगते हैं I हम सब अपने स्वार्थ में अंधे होकर अपने वर्तमान में होने वाले व्यवसायिक फ़ायदे में लगे हैं, भविष्य की तो मानो हमें कोई चिंता ही नहीं है I नदियों से अवैध खनन का मामला हो या अंधाधुंध वनों की कटाई या फिर पहाड़ों को काट-काटकर बस्तियाँ और शहर बसाना हो या बालिका-भ्रूण हत्याएं…सब कुछ असंतुलन ही तो पैदा कर रहा है जिसके परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भोगने के लिए अभिशप्त होंगी I अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो उनके लिए यही तोहफ़ा तो छोड़कर जाएँगे ना I
आजकल चारों ओर पर्यावरण बचाओ, स्त्रियाँ बचाओ की खूब चर्चा है I इस विषय पर समूचा जगत चिंतित भी दिखाई दे रहा है और एक साथ खड़ा भी I जगह-जगह इस पर बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस हो रही हैं और खूब लिखा पढ़ा जा रहा है I सरकारें भी वक़्त-वक़्त पर इस संबंध में अपने तमाम दावें पेश करती रही हैं परंतु हालातों में कहीं पर भी शायद ही संतोषजनक स्थिति में सुधार दिख रहा है I
ऐसे परिवेश में कवि का मन भी इससे कैसे अछूता रह सकता है? परसों ही श्री संजय वर्मा ‘दृष्टि’ जी ने हमें मनावर, जिला धार (म.प्र.) से अपनी पुस्तक ‘दरवाजे पर दस्तक’ भेजी है I पुस्तक इसी सामयिक समस्या पर केन्द्रित है इसीलिए हमने सोचा कि आपको भी इससे रुबरु करा दिया जाए I हमारा उनसे फ़ेसबुक पर ही परिचय हुआ और वो परिचय भी एक बेटियों पर लिखी एक कविता के माध्यम से ही हुआ था और फिर हम एक दूसरे की रचनाओं के साझीदार होते चले गए I अब जब उनकी यह पुस्तक देखी तो समझ में आया कि उनकी कविताओं का प्रमुख उद्देश्य है बेटी बचाओ/पर्यावरण बचाओ I सच में अगर हम ध्यान से देखें तो स्त्री ही तो प्रकृति का साक्षात् रूप होती है; दोनों ही सृजन करती हैं और दोनों के बिना ही यह धरती बंजर होने में देर नहीं लगेगी I
पुस्तक के आवरण चित्र में एक प्यारी-सी बच्ची दरवाजे पर दस्तक देती दिखाई दे रही है, उसकी दस्तक की आवाज़ सुनकर जब हमने पुस्तक को खोला तो यही बच्ची जगह-जगह पर तमाम मोहक रूपों में दिखी और हम अभिभूत होते चले गए…
पायल छनकाती बेटियाँ,
मधुर संगीत सुनाती बेटियाँ,
पिता की साँस बेटियाँ,
जीवन की आस बेटियाँ…
उम्मीद की किरण बेटियाँ,
मेहँदी रचती बेटियाँ,
ख्वाबों के रंग सजती बेटियाँ,
ससुराल जाती बेटियाँ…
बिटिया की भ्रूण-हत्या के मुद्दे पर कवि को अपने भीतर से उस भ्रूण के दर्द का अहसास होता है:
होता था बिटिया से
घर-आँगन उजियारा
मौत पंख लगा के आई
कर गई सब जग अँधियारा…
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आने दो जरा इस धरा पे मुझको
नेह भरी निगाह से देख सकूँगी मैं सबको…
जीने का अधिकार
ईश्वर ने दिया सबको
तो क्यों मारते हो हमें
बस आने दो इस धरा पे मुझको…
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कई स्थलों पर कविताओं में प्रकृति में बेटी का चित्रण एकदम साकार हो उठा है:
पत्तियों का डाली से छूटना आया
पतझड़ में जैसे वृक्ष को रोना आया
परिंदों का था ये पत्तियों का पर्दा
छाँव छूटी और तपिश गहराया…
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कवि अंत में अपना यह संदेश तमाम आवाम तक पहुँचाना चाहता है:
हक़ बेटी का भी होता है
क्यों करते हैं भ्रूण-हत्याएँ
रोकेंगे मिलकर जब इसे
तभी रोशन होंगी
रिश्तों की बगियाएं
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बेटियाँ और वृक्ष से ही तो कल है
इनसे ही जीवन जीने का एक-एक पल है
संकल्प लेना होगा इन्हें बचाने का आज
दुनिया बचाने का होगा ये ही एक राज
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इसके अतिरक्त जल-संरक्षण, नेत्रदान, आतंकवाद जैसे मुद्दों को भी छुआ है तो साथ ही कुछ श्रंगार की भी कविताएँ हैं I किताबों के बारे में भी एक बढ़िया कविता है, उसकी कुछ पंक्तियाँ:
किताबें भी कहती हैं शब्दों में
हमसे कुछ ज्ञान पाते रहो
हमें भी अपने घरों में फूलों की तरह
बस यूँ ही तुम सजाते रहो…
इस कविता के अंत में वो कहते है :
मांग कर ली जाने वाली किताबों को
पढ़कर जरा तुम लौटाते रहो I
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इतने सुंदर विचारों को शब्द-रूप देने के लिए संजय जी नि:संदेह धन्यवाद के पात्र हैं I हमारी ओर से उन्हें अनेकों हार्दिक मंगल कामनाएँ I
समीक्षक-डॉ. सारिका मुकेश बेंगलोर