लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 14)
सामान्यतया राज्य में होने वाली घटनाओं की सभी बातें शकुनि महाराज धृतराष्ट्र तक पहुँचा देता था और अपनी ओर से भी झूठी-सच्ची कहानियाँ जोड़कर उनके मन में पांडवों के प्रति ईर्ष्या को पुष्ट किया करता था। इसका परिणाम यह हुआ था कि धृतराष्ट्र प्रत्यक्ष में पांडवों के प्रति प्रेम होने का दिखावा करते हुए भी वास्तव में उनसे द्वेष मानने लगे थे। यही शकुनि चाहता था। लेकिन धृतराष्ट्र इतने सावधान रहते थे कि उनके मनोभाव सब पर प्रकट न हो जायें। यदि ऐसा हो जाता, तो वे जानते थे कि निश्चय ही उनको वनवास में भेज दिया जाएगा और उनके पुत्रों को साधारण राजकुमार मानकर उपेक्षित कर दिया जाएगा। वे इसी से डरते थे और पांडवों के प्रति प्रेम का दिखावा किया करते थे।
उस दिन महाराज के पास जाने से पहले शकुनि ने यह प्रबंध कर दिया कि महाराज और वह एकान्त में वार्ता करते रहें और कोई उनकी बात न सुने। जाकर उसने महाराज को बहुत कोमल और मधुर शब्दों में प्रणाम किया। धृतराष्ट्र उस समय अकेले ही बैठे थे और सदा की तरह अपने और अपने परिवार के भविष्य की चिन्ता में लीन थे। शकुनि का आगमन सुनकर उनका मुख खिल गया और बोले- ”आओ शकुनि! क्या समाचार हैं?“
शकुनि ने अपनी मुख-मुद्रा बहुत दयनीय बना ली, ताकि उनकी वाणी पर भी उसका प्रभाव पड़े, यद्यपि वह जानता था कि महाराज उसकी मुख-मुद्रा नहीं देख सकते। वह बोला- ”समाचार अच्छे नहीं हैं, महाराज! आपका भविष्य अंधकार की ओर जा रहा है।“
यह सुनकर धृतराष्ट्र घबरा गये और बोले- ”ऐसा क्या हो गया शकुनि!“
”महाराज! हस्तिनापुर में ऐसी चर्चा चल रही है कि शीघ्र ही युवराज युधिष्ठिर को आपकी जगह राज सिंहासन पर बैठा दिया जाएगा और आपको वनवास में भेज दिया जाएगा।“
यह सुनकर धृतराष्ट्र की चिन्ता बढ़ गयी- ”ऐसा क्यों कह रहे हो भ्राता?“
”महाराज! पूरे नगर और राज्य में युवराज युधिष्ठिर के शासन की प्रशंसा हो रही है। सभी लोग पांडवों की प्रशंसा कर रहे हैं। उनकी लोकप्रियता प्रति दिन बढ़ती जा रही है।“
”ऐसा तो बहुत पहले से हो रहा है, इसमें नया क्या है?“
”नया यह है कि लोग अब कहने लगे हैं कि महाराज को राजसिंहासन छोड़ देना चाहिए और युवराज को सौंप देना चाहिए।“
”क्या वास्तव में ऐसी बातें हो रही हैं?“
”हाँ महाराज! लोग तो यह भी कह रहे हैं कि पहले दुर्योधन और उसके भाई उनको सताया करते थे, अब उन पर रोक लग गयी है।“
”यह कहना तो असत्य है!“
”हाँ महाराज! यह असत्य है कि आपके पुत्र किसी को सताते थे। पर कहने वालों का मुँह कौन बन्द कर सकता है?“ शकुनि को स्पष्ट झूठ बोलते हुए कोई लज्जा नहीं हुई, हालांकि वह जानता था कि दुर्योधन के कुछ भाई व्यापारियों को सताया करते थे और उनकी वस्तुएँ बिना मूल्य दिये उठा ले जाते थे। ऐसे कार्यों के लिए उन पर कई बार अर्थदंड भी लगाया गया था। पर वह ऐसी बातें धृतराष्ट्र को नहीं बताता था। अंधे महाराज पूरी तरह शकुनि की सूचनाओं पर ही निर्भर करते थे और शकुनि ही उनकी आँख-कान बना हुआ था। यदि कभी महामंत्री विदुर उनको ऐसी सूचना देते भी थे, तो वे उसे उपेक्षित कर देते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि विदुर ने उनको ऐसी संवेदनशील सूचनायें देना ही बन्द कर दिया था।
”मुझे क्या करना चाहिए, शकुनि?“ महाराज ने कुछ सोचकर शकुनि से ही पूछा।
शकुनि उनको इस अवसर पर सीधे कोई सलाह नहीं देना चाहता था, इसलिए उसने धृतराष्ट्र को ऐसी सलाह दी कि उसका काम भी बन जाये और उस पर कोई दोष भी नहीं आये। उसने कहा- ”महाराज! इस बारे में आपको अपने मन्त्री कणिक से परामर्श करना चाहिए। वे आपको सही सलाह दे सकते हैं।“
”तुम्हारा कहना उचित है शकुनि! तुम कल कणिक को मेरे पास भेज देना। और ध्यान रखना कि विदुर या उसके गुप्तचरों को इसकी भनक न लगे।“
”उचित है महाराज! ऐसा ही होगा।“
अपना उद्देश्य पूरा होते ही शकुनि वहाँ से चला गया और कणिक को महाराज से मिलने की सूचना भिजवा दी।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल