प्रिये! तुम झूठ बोलती हो
प्रिये! तुम झूठ बोलती हो
उपभोक्तावादी समाज में,
सब व्यापारी बने हुए हैं।
हाथ तराजू कसकर जकड़े,
डंडी जैसे तने हुए हैं।।
क्या खोया,क्या पाया तुमने,
कह दो कहाँ तोलती हो!
प्रिये! तुम झूठ बोलती हो।।
बापू – अम्मा की सेवा में,
खड़ी हमेशा ही रहती हो।
अपने सारे दर्द भुलाकर,
बिन बोले सबकुछ सहती हो।।
चर-चर चरखा जैसे घर में,
तकली – सरिस डोलती हो।
प्रिये! तुम झूठ बोलती हो।।
दो कुल की मर्यादा के हित,
दोगुण राज दबा लेती हो।
पिता,पुत्र,पति,प्रेमी घर,तुम
बेघर, स्वर्ग बना देती हो।।
पीकर घूँट-घूँट दुख-सागर,
मुँह कब कहो खोलती हो!
प्रिये! तुम झूठ बोलती हो।।
कर्कश वाणी की चक्की में,
घुन जैसी नित पिस जाती हो।
बाल, वृद्ध, मेहमान, बाद में,
बचा खुचा ही तुम खाती हो।।
मुस्काकर सबके कानों में,
मधुमय सुधा घोलती हो।
प्रिये! तुम झूठ बोलती हो।।