समय की रेंगनी से गुम हो गयी खुशी की
मोतियाँ सभी खजाने की,
हाथ सिर्फ आई रिश्ते की नाजुक डोर
खामोशियाँ रही सताने की।
चंद लोगों की भीड़ थी और थी कुछ
बहुत यूँही मन बहलाने की,
छोड़ गये वो साथ आखिर एकदिन
यादें बची रहीं बस रूलाने की।
आस्माँ देखकर कृषक खुश होता है
भला बाढ़ क्यूँ आई सब बहाने की,
यहाँ वर्जित ही है अतिशयता
सीमाएँ इसलिए ही बनी निभाने की।
ये बाग बगीचे ,फूल खुश्बू ,तितलियाँ
जिसने बनाई है लुभाने की
हैरत से देखता क्यूँ है तू ज़रा बता दे
कोई तो बात छुपी है सिखाने की।
महल -दोमहलें , ये ऊँची -ऊँची इमारतें
बनाया है इंसाँ ने कैसे इसे
शक्तियाँ मातृभूमि की शक्ति दिखा रहीं
तेरी औकात कहाँ आजमाने की।
— सीमा शर्मा सरोज