सामाजिक

एकांत स्मृतियां और दुःख

आदमी अपने एकान्त में दिपता है। स्वयं को टकटकी बाँधें देखते रहना उसे चौंकाता है। भीड़ तो वह ही होती है, जो आपके अतिरिक्त हो। आपके होते ही वह भीड़ कहाँ ! भीड़ ही इकलौता छोड़ती है। आदमी भर भीड़ नहीं छोड़ पाता। एकान्त तो निचोड़ता है। रत्तीभर भी नहीं छोड़ता। वह तो किसी गहरे सुनसान खोह में धकेल देता है। जहाँ व्यक्ति स्वयं की आकृति से दोचार होता रहता है। ज्यों किसी निर्जन में खड़ा कोई अकेला पेड़ हो। दृष्टिपार के समीप। विहगों के पाँख भी हाँफ उठते हैं उसकी ओर दम भरने में। बीच का भेद उसे थाहता है। वह बीचबीच में लम्बी दीठ भरकर काँप लेता है।
कईबार जब मैं चुप होता हूँ तो समृतियाँ किसी सर्पिणी की भाँति फुंकार उठती हैं। समय वय का हाथ थामे अनायास चल उठता है। जो इस क्षण की है ही नहीं, वह ही स्मृति। और जो इस न होने से खुश हो ले, वह आदमी। मैं तो बस देख लेता हूँ। खुश इसलिए नहीं होता कि यह अबकी खुशी भी कल की स्मृति भर रह जायेगी। किन्तु वह चली आती है। अपने प्रश्नों से थरथरा जाती है। मैं उसे वर्तमान में बैठा लेता हूँ। देर तक उसे देखता हूँ। सिहरता हूँ। अचानक से वह उठती है, और बिना कुछ कहे किसी झँपकी की भाँति चली जाती है।
मैं अपने ही भीतर परत-परत उघड़ता हूँ। अश्रु इस उघड़न को भेंटते हैं। आँखों में नमी की अदृश्य लेप उपट जाती है। अव्यक्त की पतली धार सदा पीछे लौट जाती है। पुनः आँख बन्द करके सबकुछ सञ्च लेता हूँ। न जाने यह जीवन इतने संघटकों के साथ क्यों आता है। क्यों भावों का यह वितान उतरता नहीं। क्यों मनुष्य बढ़कर इनसे लिपटता है। क्यों यह दाह छूटता नहीं। क्यों यह ताप उतरता नहीं। क्यों यह निदाघ जुड़ाता नहीं। क्यों मन बारम्बार पछाड़ खाकर गिरता है। क्यों यह दुख पहाड़ को लाँघ जाता है। क्यों सदा कुछ अटका रह जाता है। क्यों मनुष्य इसमें भटका रह जाता है।
सब उत्तर व्यर्थ के हैं। सन्तोष भर देने को भर। सन्तोष भी वहीं है जो स्थानापन्न हो। मूल से असम्बद्ध। बस कुछ क्षण तक। तब मैं स्वयं को संतोष से नहीं भरता। मैं दुख को भी नापता हूँ। उसे छाती से सटाता हूँ। कहता हूँ कि रह जाओ। मैं यहीं हूँ। कहीं नहीं जाने वाला। तुम कूदो, गाओ, बूड़ो, उतराओ। इस दुख को, अपने दुख दोहराते हुए देखना ही मुक्ति है। मैं इस मुक्ति से भी मुक्त होना चाहता हूँ। कुछ तो सच हो। कुछ तो हो जो जिसका अभिप्राय भी मुक्त हो। मेरे सूनेपन को कोई तो पाले। कुछ तो रह जाय जो कि सँभाले।
अभी, इसीक्षण, सन्नाटा मुझमें अपना चेहरा देखता है। भीतर उसकी ही छवि है। यदाकदा वह बाहर ढुलक जाता है। अन्तस् ऐसे खुलता है जैसे पौ फटती है। अचानक से छौंकती हुई कालिमा अपने खोल में भितरा जाती है। हरबार दुख काला ही नहीं होता। मुझमें यह लालिमा की भाँति पसरता है। इससे जीवन चुनचुनाता है। साँसों की चिरोमन इसे चुगती है। यह किसी ओस की बूँद जैसा मुझमें झरता है। आकाश जैसा रङ्ग भरता है। वैसा ही अथाह। वैसा ही सर्वत्र। यह मेरी संवेदनाओं का पछोरन है। सधकर चलता हुआ। डग-डग बढ़ता हुआ।
जो आदमी को विस्मय से भरे, वह ही जीवन। जिसे स्वयं को देखकर कभी आश्चर्य न हुआ, वह क्योंकर हुआ। पुनः जिसने जीवन की विसंगतियों से सङ्गत न किया, वह जिया ही नहीं। दुख तो उसकन की भाँति माँजता है। उसमें रहकर ही आदमी अपनी छाया पार कर जाता है।
समीप बनी छाया धीरे-धीरे छापती आ रही। मेरा आधा चेहरा उससे परिचित हो चला है। शीघ्र ही वह मुझमें ढल जायेगी। छत पर पच्छिम गझिन हो आया है। पूरब ने धीमे से उबासी ली है। विदा की उबासी। नभ झुककर साँझ को अँकवारता है। दुख घुलता है। रात पहरती है। पुनः वही एकान्त मुझमें दिपदिप करके दिपने लगता है।
— प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

शोध प्रशिक्षक एवं साहित्यकार लखनऊ (उत्तर प्रदेश) व्हाट्सएप - 8564873029 मेल :- [email protected]