इस नदी पर, कभी पुल बनाना नहीं,
क्यों कि उसपार, ऐसा ठिकाना नही ।
मेरे हृदय को ही, वो बेचकर खा गए-
फिर भी उनको, हमने पहचाना नहीं ।
अब संस्कारों की बातें सब झूंठी लगें-
बच्चे कहते हैं, अब वह जमाना नहीं ।
नदियों के जाल में, ये जो सागर फँसा-
हमने समझाया बहुत, पर माना नहीं ।
पुरानी खाट पर, मैं खाँसता रहता हूँ-
व्यस्त जीवन से, तुम लौट आना नहीं ।
बाँट दो सब उजाले, जो तेरे पास हों-
यूँ उजालों के बहाने, घर जलाना नहीं ।
तू कुचल डाल नागों के फन को भले,
व्यर्थ में किन्तु किसी को सताना नहीं ।
— प्रमोद गुप्त