ग़ज़ल
यादों का इक बहुत पुराना कमरा टोल रहा हू़ँ।
सूखे ज़ख्मों के मैं फिर से टाँके खोल रहा हूँ।
शायद सजदे की मुद्रा में एक समन्दर आए,
उमीदों के अंधेरे में उजाले घोल रहा हूँ।
हर आँख में आंसू टपके, पलकों की सरहद् पर,
महफिल की ख़ामोशी भीतर कविता बोल रहा हूँ।
घी जब खत्म हुआ तो बाती फफक-फफक कर बूझी,
दीपक से अपना सारा दायित्व टटोल रहा हूँ।
क्या हुआ यदि उससे संबंध का विच्छेद हुआ है,
उस की माँग में एक सिंदूर तरह अनमोल रहा हूँ।
शायद दुश्मन मित्र बन कर एक सहारा देते।
एक मुद्दत से गंदले विष में अमृत घोल रहा हूँ।
क्योंकि मेरा जीवन फूल था काँटों का कर्ज़ाई,
गुलशन भीतर रह कर खुशबू के समतोल रहा हूँ।
माना, ना ही धरती मेरी, ना ही कोई अम्बर,
फिर भी एक भूगोल रहा हूँ, एक खगोल रहा हूँ।
लय में घंघरू की छम-छम स्वयं नसीब नहीं हुई,
तबला, सारंगी, डफली, मंजीरे, ढोल रहा हूँ।
मगर तराजू वाली डण्डी बिल्कुल बीच खड़ी है,
एक पलड़े ‘बालम’ दूजे ‘बलविन्दर’ तोल रहा हूँ।
— बलविन्दर ‘बालम’