रास्ते का पत्थर
रास्ते का पत्थर हुँ
उस आधुनिक समाज का
जहाँ जाम पे जाम छलकाया जाता है
ऊंची ऊंची अट्टालिकायें
भव्यता पूर्ण चकाचौंध युक्त शमा
दमकते हुए लिबास
इंसान की महानता की पहचान है
जीवन की चमक दमक से दूर कहीं
चिलमिलाती धूप में
कार्य करते हुए
किसी मजदूर के पसीने की खुशबू
नमकीन एहसासों से
महकते हुए लिबास
ऊंचे विशाल भवन भी
बौने नजर आने लगते हैं
परिश्रम की थकान से चूर चूर मजदूर
मर मर कर जीने की लालसा में
बन जाता है रास्ते का पत्थर
फिर ठोकरें खाना जिंदगी बन जाती है
मैं हुँ रास्ते का पत्थर
अय्याशियों से गलियारों में
तबले थाप और घुंघरू खनक में
नारी मन अस्मिता
दबी हुई चिंगारी सी धधकती रहती है
उसके कदमों में
लक्ष्मी और सरस्वती
अस्तित्व बिखरती प्रतीत होती है
संसार की सारी महानता जिसके कदमो तले
आकर सिमटने लगती हैं
ये समाज की कुंठा ग्रस्तता के परिणाम स्वरूप
प्रस्तर की मूक प्रतिमा सी
रास्ते का पत्थर बन जाती नारी मन
सुशिक्षित,सुसंस्कृत, सम्पन्न समाज की
ये बुनियादी प्रश्न बन जाती है
इस सवालिये मुद्दे के वजह से
सारा विकास सारा वैभव हाशिये पे आ जाता है
क्या यही हमारा विकसित समाज है
जहाँ भविष्य का निर्माता और
समाज का सम्मान
की किस्मत में सिर्फ
ठोकरें ही खाना उसकी नियति बन गई है
उस समाज की विभूतियां बन हुई हैं
जीवन में जिंदगी मर सी गई है
इसलिये राज बन गया है,आजकल
आहत मन चीत्कार उठता है
मैं रास्ते का पत्थर….
— राजेन्द्र कुमार पाण्डेय “राज”