लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 19)
दुर्योधन के साथ कर्ण और दुःशासन भी आये, जो उसके साथ छाया की तरह लगे रहते थे। तीनों ने आकर शकुनि का अभिवादन किया। आते ही दुर्योधन ने व्यग्रता से पूछा- ”मामाश्री! क्या आपको कोई उपाय सूझा है? मैंने कई बार पांडवों को समाप्त करने का प्रयास किया, परन्तु वे बहुत सतर्क रहते हैं और हर बार बच निकलते हैं। इस बार ऐसा उपाय करना चाहिए कि उनके बचने की संभावना लेशमात्र भी न रहे।“
शकुनि ने भेदक दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा- ”ऐसा एक उपाय है भागिनेय! लेकिन यह बहुत कठिन है और इसमें महाराज का सहयोग भी अनिवार्य है।“
”आप उपाय बताइए, मामाश्री! पिताश्री का सहयोग मैं किसी भी तरह प्राप्त कर लूँगा।“ दुर्योधन ने कहा। वह अपने प्रति अपने पिता की दुर्बलताओं को भली प्रकार जानता था और उनका उचित-अनुचित लाभ उठाया करता था। उसे विश्वास था कि वह अपने पिता को कुछ भी करने के लिए बाध्य कर सकता है। इसलिए उसने यह आश्वासन दिया था।
”उपाय यह है युवराज कि पांडवों को कुछ दिन के लिए किसी अन्य स्थान पर भेज दिया जाये और वहाँ उनके निवास में आग लगाकर उन्हें समाप्त कर दिया जाये।“
”ऐसा कौन-सा स्थान हो सकता है, जहाँ पांडवों को भेजा जा सके?“ यह प्रश्न था दुःशासन का।
”भागनेय! तुम्हें पता होगा कि हमारे राज्य के वारणावत नगर में शिव पूजा के अवसर पर बहुत बड़ा मेला लगता है। वह मेला लगभग दो महीने बाद लगने वाला है। उसमें महाराज के प्रतिनिधि के रूप में पांडवों को भेजा जा सकता है।“
दुर्योधन ने कहा- ”लेकिन उनको हम बलपूर्वक कैसे वहाँ भेज सकते हैं? यह असम्भव है।“
”असम्भव नहीं है, युवराज! उनको महाराज के आदेश से वहाँ भेजा जा सकता है। युधिष्ठिर कभी महाराज के आदेश का उल्लंघन नहीं करेंगे। यह उनकी दुर्बलता है, जो हमें ज्ञात है। अब यह तुम्हारा कार्य है कि महाराज से ऐसा आदेश दिलवाओ।“
”मैं अवश्य पिताश्री को यह आदेश देने के लिए तैयार कर लूँगा। निश्चिन्त रहिए।“
”केवल सभी पांडव ही नहीं, उनकी माताश्री को भी उनके साथ ही भेजना है। क्योंकि यदि एक भी पांडव शेष रह जाएगा, तो वही पांडु का उत्तराधिकारी माना जाएगा। इसलिए हमें सभी को समाप्त करना है। उन सभी को एक साथ भेजने का कार्य सरल नहीं है, क्योंकि भीष्म, द्रोण, विदुर आदि सभी की ओर से इसका विरोध किया जाएगा।“
”कितना भी विरोध हो मैं पिताश्री को कुंती सहित सभी पांडवों को वारणावत जाने का आदेश देने को तैयार कर लूँगा। लेकिन वारणावत में यह कार्य कैसे होगा?“
”वहाँ हम गुप्त रूप से एक ऐसा महल बनवायेंगे, जो ज्वलनशील पदार्थों से बना होगा, ताकि वह शीघ्र आग पकड़ सके और किसी को बचने का अवसर न मिले।“
”उस महल को बनाने का दायित्व किसी बहुत विश्वसनीय व्यक्ति को सौंपना होगा, ताकि वह समय पर यह कार्य पूरा कर सके और निर्धारित दिन महल में आग लगा सके।“ यह कर्ण का कथन था।
इस पर दुर्योधन ने कहा- ”ऐसा एक व्यक्ति है पुरोचन! वह मेरा मंत्री और बहुत विश्वासपात्र है। उसे राज्य की ओर से पांडवों के लिए महल बनाने का कार्य सौंपा जा सकता है। वह निश्चित रूप से यह कार्य सम्पन्न कर देगा और हमारा काँटा सदा के लिए निकल जाएगा। मामाश्री! आप उसको पूरी योजना समझाकर शीघ्र वहाँ भेज दीजिए। इस कार्य में जितना भी धन व्यय होगा उसकी व्यवस्था मैं कर दूँगा।“
”लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है, दुर्योधन! वारणावत नगर के निवासियों की ओर से भी ऐसी माँग आनी चाहिए कि वे इस वर्ष के उत्सव में अपने युवराज सहित सभी पांडवों को बुलाना चाहते हैं। इसके लिए अपने गुप्तचरों को वहाँ भेजकर यह बात फैलानी होगी।“
इस पर दुःशासन बोला- ”यह व्यवस्था मैं कर दूँगा। हम यहाँ भी अपने गुप्तचरों से यह बात फैला देंगे कि वारणावत नगर बहुत सुन्दर है और इस बार वहाँ के लोग पांडवों को अपने अतिथि के रूप में बुला रहे हैं।“
”बहुत अच्छा दुःशासन ! फिर तो केवल महाराज की आज्ञा लेने का कार्य रह जाएगा। वह भी समय आने पर कर लेंगे।“
— डॉ. विजय कुमार सिंघल