सामाजिक

आलोचना मनुष्य स्वभावम

अरे यार, वो ऐसा यार वैसा, उससे मिलना हुआ काफी अच्छी दोस्ती रही पर पता नहीं ऐसा क्या हुआ ? उसने मेरा यह काम पूरा नहीं किया । मैंने उसका क्या बुरा किया था, उसके साथ मैंने पक्की मित्रता निभाई पर वह एक छोटा सा काम न कर सका ! इससे अच्छा तो मैं दोस्ती न करता उससे । काश ! कि तुम मुझे पहले मिल गए होते तो……. वो क्या जाने कि दोस्ती कितना अनमोल गहना है, उसने बड़ा धोखा दिया है मुझे । तुम कितने अच्छे हो जो मेरी इतनी बात भी सुन रहे हो । बस……… चापलूसी संग लग गए स्वार्थपूर्ति में अपना बखान करने में पर ये नहीं सोचा तनिक भी कि क्या मजबूरी रही होगी, नहीं जाना कि कोई परेशानी आई होगी । अरे सच्ची मित्रता की असली परख ही यही है कि हर क्षण हर घड़ी वो परिस्थिति को समझे, पूरी तरह आंकलन करे, तब कोई निर्णय ले । बस लग जाते हैं आलोचना करने कभी यहाँ तो कभी वहाँ ।

एक से काम सधा तो उससे दूसरे की और दूसरे से काम पड़े तो पहले की । क्या ज़माना आ गया है, आलोचना हावी हो गई है सब पर । केवल मित्रता के आधार को हिलाने में ही नहीं बल्कि हर परिवेश में यह भूमिका निभा रही है । सती तो यह है कि ये हमारे लहू में मिल गई है तो अब निकले भी कैसे ? वास्तव में आँका नहीं जा सकता अब व्यक्ति की मानसिकता को कि वह निष्ठा रख रहा है या कि स्वार्थपूर्ति हेतु औपचारिकताएँ निभा रहा है । संदिग्ध स्तिथियाँ बन पड़ी हैं ऐसे में कई बार भले व्यक्तियों का भी बुरा हो जाता है । कहते है ‘करे कोई और भरे कोई’ आज इसका रूप विकराल हो चुका है जो कि नियंत्रण से बाहर है ।

आज परिवार के भीतर हर सदस्य एक-दूसरे की आलोचना का शिकार है । फिर वह बाहर दौड़ता है अपने दुखड़ों का कोई साथी कि मुझे कोई ऐसा मिले जिसेसे मुझे बुरा- भला कहने वाले के बारे में मैं कुछ तो कह सकूँ । आवेश में वह ये भूल जाता है कि ये बाहरी लोग एक दिन घातक हो सकते हैं, जिन्हें वह अपना समझ कर उन अपनों के बारे में कहने जा रहा है जो हमारी आलोचना हमारे अच्छे के लिए ही करते हैं । व्यक्ति जब हतोस्तहित होता है तब उसे यह समझ नहीं आता वह तो बस एक आशा की किरण खोजता है ।

किसी से बात करते वक़्त उसके शब्द होते हैं ‘भाई तुम मेरे सबसे निकटस्थ हो बस तुमसे ही उम्मीद कर रहा हूँ, तुम्हें ही सब बताने जा रहा हूँ पर एक वादा करो कि तुम ये सब किसी से नहीं कहोगे ।’ यही आखिरी शब्द श्रोता को रुचिकर बनाते हैं, वह निश्चित ही सारी बात सुनकर वक्ता को आश्वस्त कर देता है- ‘हाँ भाई हाँ, पर तुमने ऐसा कहकर मुझे बेगाना कर दिया । तुम्हें अपना मानता हूँ, मैं ऐसे कैसे कर सकता हूँ । तुम विश्वास रखो मुझ पर तुम्हारी हर बात मेरे दिल में ही रहेगी ।”

यही कथन जहां समर्पित वक्ता को आश्वस्त करता है वहीं श्रोता को संदेहस्पद कर देता है । यह मैंने अपने आसपास के सुने हुए कटु अनुभवों से सीखा है कि अधिकांशत: जैसे ही अतिशय आस्था,श्रद्धा और प्रेम भावों से वक्ता ने मुँह फेरा ही …..कि कुलबुलाहट होने लगी पेट में श्रोता के, कि कैसे इस बात को पेट में रखा जाए, मुँह में रखा जाए और इंतज़ार शुरू कि कब कोई खास मित्र आए बैठने और पता चले बातों ही बातों में बयां कर दी सारी दास्तां और बोले यार – ‘मैं कह तो गया पर तुम मेरी कसम खाओ कि ये बात तुम किसी से नहीं कहोगे ।’ बस हो गया न यही सिलसिला शुरू छली गई मित्रता, विश्वास, आस्था ! इतना कहने पर भी श्रोता को ग्लानि नहीं है कि यदि मेरे मित्र को पता चला तो क्या होगा ?’ करियाई फेरते ही लोगों का रवैया बदल जाता है । इधर की उधर बस इसी में मौज करते फिर रए सब । किसी का क्रियाकर्म तो किसी का कार्यक्रम…….

— भावना ‘मिलन’ अरोरा

भावना अरोड़ा ‘मिलन’

अध्यापिका,लेखिका एवं विचारक निवास- कालकाजी, नई दिल्ली प्रकाशन - * १७ साँझा संग्रह (विविध समाज सुधारक विषय ) * १ एकल पुस्तक काव्य संग्रह ( रोशनी ) २ लघुकथा संग्रह (प्रकाशनाधीन ) भारत के दिल्ली, एम॰पी,॰ उ॰प्र०,पश्चिम बंगाल, आदि कई राज्यों से समाचार पत्रों एवं मेगजिन में समसामयिक लेखों का प्रकाशन जारी ।