गांधी जी की स्पष्टवादिता और सत्यनिष्ठा
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की ईमानदारी, स्पष्टवादिता, सत्यनिष्ठा और शिष्टता के कई किस्से प्रचलित हैं, जिनसे उनके विराट व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक मिलती है। ऐसी ही घटना दक्षिण अफ्रीका की है। एक प्रसिद्ध व्यापारी रूस्तम जी गांधी जी के मुवक्किल और निकटतम सहयोगी भी थे। वे अपने सभी कार्य अक्सर गांधी जी की सलाह के अनुसार ही किया करते थे। कलकत्ता और बम्बई से तब उनका काफी सामान आता था, जिस पर वे चुंगी चुराया करते थे। उन्होंने इस बात को गांधी जी से छिपाए रखा। एक बार चुंगी अधिकारियों द्वारा उनकी यह चोरी पकड़ ली गई और उनके जेल जाने की नौबत आ गई। वे दौड़े-दौड़े गांधी जी के पास पहुंचे और पूरा वृतांत उन्हें सुना डाला। गांधी जी ने पूरी बात गौर से सुनने के बाद उन्हें उनके अपराध के लिए फटकार लगाई और सलाह दी कि तुम सीधे चुंगी अधिकारियों के पास जाकर अपना अपराध स्वयं कबूल कर लो, भले ही इससे तुम्हें जेल हो जाए। रूस्तम जी गांधी जी की सलाह मानकर तुरंत चुंगी अधिकारियों के पास पहुंचे और अपना अपराध स्वीकार कर लिया। चुंगी अधिकारी उनकी स्पष्टवादिता से प्रसन्न हुए और उन्होंने उन पर मुकद्दमा चलाने का विचार त्यागकर उनसे चुंगी की बकाया राशि से दुगुनी राशि वसूलकर उन्हें छोड़ दिया।
एक बार महात्मा गांधी श्रीमती सरोजिनी नायडू के साथ बैडमिंटन खेल रहे थे। श्रीमती नायडू के दाएं हाथ में चोट लगी थी। यह देखकर गांधी जी ने भी अपने बाएं हाथ में ही रैकेट पकड़ लिया। श्रीमती नायडू का ध्यान जब इस ओर गया तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी और कहने लगी, ‘‘आपको तो यह भी नहीं पता कि रैकेट कौनसे हाथ में पकड़ा जाता है?’’
इस पर बापू ने जवाब दिया, ‘‘आपने भी तो अपने दाएं हाथ में चोट लगी होने के कारण बाएं हाथ में रैकेट पकड़ा हुआ है और मैं किसी की भी मजबूरी का फायदा नहीं उठाना चाहता। अगर आप मजबूरी के कारण दाएं हाथ से रैकेट पकड़कर नहीं खेल सकती तो मैं अपने दाएं हाथ का फायदा क्यों उठाऊं?’’
गांधी जी एक बार चम्पारण से बतिया रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे। गाड़ी में अधिक भीड़ न होने के कारण वे तीसरे दर्जे के डिब्बे में जाकर एक बर्थ पर लेट गए। अगले स्टेशन पर जब रेलगाड़ी रूकी तो एक किसान उस डिब्बे में चढ़ा। उसने बर्थ पर लेटे हुए गांधी जी को अपशब्द बोलते हुए कहा, ‘‘यहां से खड़े हो जाओ। बर्थ पर ऐसे पसरे पड़े हो, जैसे यह रेलगाड़ी तुम्हारे बाप की है।’’
गांधी जी किसान को बिना कुछ कहे चुपचाप उठकर एक ओर बैठ गए। तभी किसान बर्थ पर आराम से बैठते हुए मस्ती में गाने लगा, ‘‘धन-धन गांधी जी महाराज! दुःखियों का दुःख मिटाने वाले गांधी जी …।’’
रोचक बात यह थी कि वह किसान कहीं और नहीं बल्कि बतिया में गांधी जी के दर्शनों के लिए ही जा रहा था लेकिन इससे पहले उसने गांधी जी को कभी देखा नहीं था, इसलिए रेलगाड़ी में उन्हें पहचान न सका। बतिया पहुंचने पर स्टेशन पर जब हजारों लोगों की भीड़ ने गांधी जी का स्वागत किया, तब उस किसान को वास्तविकता का अहसास हुआ और शर्म के मारे उसकी नजरें झुक गई। वह गांधी जी के चरणों में गिरकर उनसे क्षमायाचना करने लगा। गांधी जी ने उसे उठाकर प्रेमपूर्वक अपने गले से लगा लिया।
बात उन दिनों की है, जब गांधी जी सश्रम कारावास की सजा भुगत रहे थे। एक दिन जब उनके हिस्से का सारा काम समाप्त हो गया तो वे खाली समय में एक ओर बैठकर एक पुस्तक पढ़ने लगे। तभी जेल का एक संतरी दौड़ा-दौड़ा उनके पास आया और उनसे कहने लगा कि जेलर साहब जेल का मुआयना करने इसी ओर आ रहे हैं, इसलिए वो उनको दिखाने के लिए कुछ न कुछ काम करते रहें लेकिन गांधी जी ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया और कहा, ‘‘इससे तो बेहतर होगा कि मुझे ऐसे स्थान पर काम करने के लिए भेजा जाए, जहां काम इतना अधिक काम हो कि उसे समय से पहले पूरा किया ही न जा सके।’’
–– योगेश कुमार गोयल