बढ़ती जाऊँगी
तुम जितना मुझको रोकोगे मैं उतना बढ़ती जाऊँगी
तुम पैर पकड़ कर खींचोगे, मैं ऊपर चढ़ती जाऊँगी
पढ़ते पढ़ते ही आते जाता है शऊर लिखने का भी
पढ़वा लो जी भर भर के मैं सब कुछ पढ़ती जाऊँगी
है मलंग-मिज़ाजी रग़ रग़ में दिल ऐसा मलंग मिज़ाज हुआ
ताने और तंज कसे दुनिया मत समझो कुढ़ती जाऊँगी
इक नाम ज़हन में सुबह-ओ-शाम जो रचा बसा सा रहे सदा
है सोच लिया अब सोने में मैं उसको मढ़ती जाऊँगी
मानव चाहे कुछ भी लेकिन ईश्वर की इच्छा सर्वोपरि
माँ शारदे का है वरदहस्त, नित “गीत” मैं गढ़ती जाऊँगी
— प्रियंका अग्निहोत्री “गीत”
बहुत अच्छी गज़ल के लिए बधाई