शोर
इस सन्नाटे में मेरे अंदर क्यूँ हो रहा एक शोर सा
है उजाला फिर भी मन में अंधेरा बड़ा घनघोर सा
हूँ किसी राह पे खड़ा पर जाने क्यूँ थमा सा हूँ मैं?
जाने किसका है मुझे इंतेज़ार क्यूँ खोया सा हूँ मैं?
दिल में अब हो रहा इकट्ठा बातों का एक ढेर सा
ढेरों हैं सवाल,ना मिलता कोई जवाब आसान सा
दिल और दिमाग में आज भी दिल की सुनता हूँ मैं
टूटता हूँ अक्सर फिर भी यही गलती दोहराता हूँ मैं
अपनों में अब नज़र नहीं आता अपनापन पहले सा
जज़्बातों को जैसे सभी ने बना लिया एक खेल सा
हर गैर को अपना समझ, दिल खोल के मिलता हूँ मैं
अपनों को,अपना बनाने की हमेशा जुगत करता हूँ मैं
— आशीष शर्मा ‘अमृत’
बहुत अच्छी गज़ल के लिए बधाई