”सुर संगम”
अपनी सुर-साधना से देश-विदेश में भारतीय संगीत के प्रचार-प्रसार के सराहनीय प्रयास के लिए सुरभि को ”सर्वश्रेष्ठ बहुआयामी गायिका” के खिताब से नवाजा गया था.
सुरभि की खुशी का ठिकाना ही नहीं था. हो भी क्यों न! कितना त्याग है इस सफलता के पीछे और कितनी तपस्या है! एक-एक कर अतीत की तस्वीरें उसके समक्ष नमूदार हो रही थीं.
”बचपन से ही गायन-प्रतिभा के लिए सबसे सराहना और प्रेरणा मिलना, स्नातक कक्षा में संगीत में यूनिवर्सिटी टॉपर होना, परास्नातक में प्रथम स्थान पाकर पी.एच.डी. के लिए छात्रवृत्ति मिलना. शोध का लोकप्रिय होना, अनेक संगीत समूहों के लिए उसका सक्रिय सहभागिता कर प्रशंसा पाना, उसके ”सुर संगम” का सभी संगीत समूहों-संस्थाओं में से सर्वप्रथम स्थान के लिए चयन किया जाना, उसके लिए कितना आनंददायक और गौरव का सबब था!” एक-एक कर तीस साल की रीलें उसके सामने चल गईं.
”क्या सुर है और क्या ताल है, क्या साज हैं और क्या साजिंदे हैं, क्या अनुशासन है और क्या तालमेल है! यही है ”सुर संगम” की सर्वश्रेष्ठता का राज!” चयनकर्त्ताओं की राय थी.
”मुझे तो बंधन स्वीकार ही नहीं है, मैं उड़ती चिड़िया की तरह उन्मुक्त रहकर गाना-गुनगुनाना चाहती हूं. मां सरस्वती के वरद हस्त का कुछ तो प्रतिफल देना ही चाहिए न!” मेरा विचार था, तभी तो मैंने कोई नौकरी न कर ”सुर संगम” संगीत-समूह की स्थापना की.” अपने निर्णय पर उसे गर्व था.
”अनेक मंचों पर अपनी आवाज देने के लिए मैं सचमुच उन्मुक्त थी. ”सुर संगम” की प्रसिद्धि दिन दूनी रात चौगुनी होती गई. और आज ”सुर संगम” को सर्वश्रेष्ठता की और मुझे ”सर्वश्रेष्ठ बहुआयामी गायिका” की यह उपाधि!”
”दीदी चाय!” तभी सुखदा की सुरीली आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई.
”धन्यवाद सुखदा, सचमुच इस समय मुझे चाय की सख्त जरूरत थी.”
”जी दीदी, अवार्ड के लिए चलने का समय भी हो चला है, चाय पीकर तैयार हो जाइए.”
सुरभि ने घड़ी की ओर नजर डाली और चाय को भूलकर बालों को जूड़े में बांधती हुई अवार्ड कार्यक्रम में जाने के लिए तैयार होने को उद्यत हुई.