बेमेल मेले
अब यहाँ जिलेबी तो मिलती है, किन्तु उनमें न मिठास है, न ही प्रेम ! मिट्टी की मूर्त्ति नहीं खरीदते लोग, वे प्लास्टिक के कचरे जरूर खरीद लेते हैं! लकड़ी के सामान भी इतनी कमजोर मिलती हैं कि अगली सीज़न ही खरीदी गई चौकी ‘जलावन’ के कार्य आ जायेगी! बताशा और बालूशाही में वो आस्वादन कहाँ ? हलवाई भाई के कार्य अब पुश्तैनी नहीं रहा! वे अब हवा-हवाई हो गए हैं!
मेले में अब न तो ‘मेल’ होते हैं, न ‘नाच’ ही! सिर्फ तमाशे होते हैं । ऊपर से पॉकेटमारी अलग ही! मेला-प्रायोजक चंदे से उगाही राशि में बची राशि को बचाने के तिकड़म में लगे रहते हैं!
अब तो ‘डरीमा’ भी नहीं होते है…. क्या पाठक सर ‘कर्ण’ बनते थे, रमाकांत सर तो ‘कृष्ण’ होते थे, अर्जुन के किरदार में ‘देवेन्द्र’ बाबू होते थे ! कुंती होते थे ‘ब्रह्मा दादा’ ! द्रोपदी होते थे ‘गुरुदेव’ ! गुलाबबाग की नर्तकियाँ आती थी! ….यानी रियल औरत यही होती थीं इन डरीमा में, किन्तु कुंती या द्रोपदी ‘पुरुष’ ही होते थे! महाराणा प्रताप की भूमिका में मुकुंद बाबू और झाला सरदार की भूमिका में यदुवीर दादा को कौन भूल सकता है ?
तब सचमुच में ‘मेला’ होता था, अब तो वह सिर्फ ठेलमठेला है! तब मुझे ‘लट्टू’ बहुत पसंद होता था, यही कारण अबतक मुझपर कोई लड़कियाँ ‘लट्टू’ नहीं हुई हैं! ‘गेंद’ भी पसंद था, लेकिन खिलाड़ी नहीं बन सका! छोटी फटफटिया पसंद था, लेकिन इस पटाखा को ईंट से पीटकर भी फोड़ डालते थे! अफसोस है, जो चीज वहाँ नहीं मिलती थी, वही चीज लेकर मैं जीवनभर के लिए बैठ गया हूँ यानी कलमकार हूँ, भाई ! मेले में पंडाल देखकर लगता है, इनपर हुई खर्च पर तो एक गरीब बस्ती की भूख मिट सकती थी !
मेले में अब लंगोटिया यार भी नहीं मिलते! वर्त्तमान प्रक्रम से उदास हो चला हूँ ! कृत्रिम हँसी मुझसे नहीं होता! मैं पिछले कई वर्षों से ‘मेला’ जाना बंद कर दिया है । हाँ, पुस्तक-मेला से कुछ उम्मीद बँधती है, परंतु यहाँ लेखकों में साजिश है ! पाठकों के तौर पर ‘बुड़बक’ बन सिर्फ किताब खरीद लेता हूँ । बेस्ट सेलर के चक्कर में अच्छी साहित्य हाथ से निकल जाती है।