कविता

विजयदशमी

जलाते हम हर साल रावण के पुतले
बुराई-अहंकार का प्रतीक मानकर इसे ।
बनते राम ,लक्ष्मण लेकर धनुष बाण
सोच रहे किसे मॉरू यह रावण कितने ।।
दशहरा पर कितने पुतले रावण के जले
मन के अंदर के रावण को समझा किसने ।
इंसानों में हो गया अहंकार-बुराई का वास
फल-फूल रहें आंतकी-छद्म रुपी ये जहरीले ।।
रावण ज्ञानी था , पर गुण अहंकारी थे
रावण तपस्वी था , पर कर्म अधर्मी थे ।
उसका सोने  की  लंका  पर  था राज
मर्यादा के कुछ अच्छे गुण भी उसमें थे ।।
रामनाम से पानी में भी पत्थर तैर गए थे
रामसेना संग इन्हीं पत्थरों पर से लंका गए थे ।
कहते है हम  सबजन  रामसेतु इसे आज
करों हमारे अहं का अंत ,राम तुम क्यों मौन बैठे ।।
— गोपाल कौशल “भोजवाल”

गोपाल कौशल "भोजवाल"

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