लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 26)
‘शिव भवन’ की आग से बचकर पांडव वन मार्ग से गंगा नदी की ओर जा रहे थे। माता कुंती को पैदल चलने में बहुत कठिनाई हो रही थी और वे बहुत धीरे-धीरे चल रही थीं। इसलिए भीम ने उनको अपने कंधे पर बैठा लिया। इससे वे अधिक तेजी से चलने लगे। भोर होने से पहले ही उनको गंगा तट पर पहुँच जाना था, नहीं तो किसी के द्वारा पहचान लिये जाने का भय था।
उस समय नकुल और सहदेव सुकुमार ही थे। वन मार्ग में तेज चलने से वे भी जल्दी ही थक गये। इसलिए भीम ने उनको भी अपनी भुजाओं पर बैठा लिया। अर्जुन एक छोटी सी मशाल से सबको अंधकार में प्रकाश दिखाते जा रहे थे। लगभग एक पहर तक लगातार चलकर वे गंगा के निकट पहुँच गये, जहाँ वन समाप्त होता था। वहाँ उन्होंने आस-पास के क्षेत्र का निरीक्षण किया कि कहीं कोई संदिग्ध गतिविधि तो नहीं है। कोई गतिविधि दिखाई न देने पर वे आश्वस्त होकर वन से बाहर निकल आये और गंगा तट पर पहुँच गये।
वहाँ उन्होंने देखा कि गंगा तट पर एक नाव बँधी हुई है और एक व्यक्ति नाव के पास खड़ा होकर बड़ी व्यग्रता के साथ इधर-उधर देख रहा है। तब तक भोर का उजाला हो चुका था। पांडवों को देखते ही उस व्यक्ति की आँखों में चमक आ गयी और मुख प्रसन्नता से भर गया।
उसने आगे बढ़कर पहले माता कुंती और फिर युवराज युधिष्ठिर को प्रणाम किया। फिर बोला- ”धर्मराज! मुझे महामंत्री विदुर ने भेजा है। उन्होंने कहलाया है कि वन में लगने वाली आग सभी जीव-जन्तुओं को जला देती है, लेकिन बिलों में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं।“
यह कूट वाक्य सुनकर युधिष्ठिर का मुखमंडल खिल गया। उनका जो भी संदेह था वह दूर हो चुका था। उन्होंने कहा- ”आश्वस्त हुआ बंधु! महामंत्री ने हमारे लिए क्या आदेश दिया है?“
”महाराज! महामंत्री ने कहा है कि आप इस नाव से गंगा नदी पार करके राक्षसों से क्षेत्र में रहें। वहाँ दुर्योधन के गुप्तचर आपकी गंध भी नहीं पा सकेंगे। भगवान वेदव्यास उस क्षेत्र में आते-जाते रहते हैं। उनके माध्यम से आपको सन्देश भेजे जायेंगे। सन्देश मिलने पर ही आप राक्षसों के क्षेत्र से बाहर निकलें, उससे पूर्व नहीं।“
”उचित है, हम ऐसा ही करेंगे।“
”महाराज! यह नाव यंत्रचालित है। मैं आपको इससे गंगा नदी के पार राक्षसों के क्षेत्र के निकट पहुँचा दूँगा, फिर मैं वापस आ जाऊँगा।“
”उचित है बंधु!“ यह कहकर सभी पांडव और माता कुंती नाव पर सवार हो गये।
नाववाले ने उन्हें शीघ्र ही गंगा नदी पार करा दी और कुछ दूर दक्षिण दिशा में चलकर राक्षसों के क्षेत्र के निकट उन्हें उतार दिया। यह सब करके उसने पुनः सभी को प्रणाम किया और जाने की आज्ञा माँगी। युवराज युधिष्ठिर ने उसे जाने की आज्ञा दी और फिर वे सभी शीघ्र ही राक्षसों के क्षेत्र में घुस गये। नाववाला उसी नाव से वापस इस पार आया और उसने नाव को वहीं डुबो दिया। फिर वह किसी अन्य साधन से हस्तिनापुर लौट गया और महामंत्री विदुर को सारा समाचार दिया।
गंगापार का क्षेत्र घने जंगलों से भरा हुआ था। उस समय उस वन में हिडिम्ब नामक राक्षस निवास करता था, जो मनुष्यों का शत्रु था और उनको मारकर मानव माँस खाता था। उसके भय से कोई भी मनुष्य वहाँ नहीं जाता था, इसलिए दुर्योधन के गुप्तचर भी वहाँ नहीं पहुँच सकते थे। केवल वेदव्यास को उनसे कोई भय नहीं था, क्योंकि राक्षस भी उनका आदर करते थे। भीम बहुत बलवान थे, विदुर यह जानते थे कि वे राक्षसों से अपनी और सबकी रक्षा कर सकते हैं। इसलिए महामंत्री विदुर ने पांडवों को उसी क्षेत्र में रहने का आदेश दिया था। उन्होंने सोचा था कि जब पांडवों के लिए बाहर आर्यों के क्षेत्र में आने का समय आएगा, तो उन्हें भगवान वेदव्यास के माध्यम से सन्देश भेज दिया जाएगा।
पांडव भी समझ गये कि अभी इस क्षेत्र से अधिक सुरक्षित और गुप्त स्थान कोई अन्य नहीं है। इसलिए वे वन में भीतर घुसकर वहीं रहने लगे। वहाँ फलदार वृक्ष भी मिल जाते थे, अतः फल तोड़कर भूख मिटाने में उन्हें कोई कष्ट नहीं होता था। उन्हें पीने के लिए जल भी यत्र-तत्र बने सरोवरों से उपलब्ध हो जाता था। इससे प्रत्यक्ष रूप में उन्हें कोई कष्ट नहीं था। लेकिन हिंसक पशु-पक्षियों तथा राक्षसों का भय हमेशा बना रहता था, इसलिए दिन-रात हर समय कोई न कोई एक भाई सजग रहकर उनकी रखवाली करता था। इस प्रकार वे अपने दिन काटने लगे और बाहर निकलने के सन्देश की प्रतीक्षा करने लगे।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल