व्यंग्य – तब और अब
आप अपनी जानें ,हम तो अपनी बात कहते हैं।कहें भी क्यों नहीं ,आज के जमाने के जुल्म जो सहते हैं।अब आप ये समझ लें कि मुर्दे ही प्रवाह में बहते हैं। हम तो हैं ही वे बंदे ,जो नदी की धार को चीर कर प्रवाह के विपरीत बढ़ते हैं। नए जमाने की हवा अभी इतनी नहीं लगी ,कि हवा का छोटा – सा झकोरा ही हमें अपने साथ बहा ले जाए! और सींग- मुंडित बछड़ों में हमारा नाम लिखवा पाए !
बड़ा ही प्यारा था हमारा अतीत।हर जगह ही हम हुआ करते थे सतीत (सतीत अर्थात आर्द्रता से युक्त।) पर आज के जमाने का ये चकमक रूखापन कुछ रास नहीं आता। कोरा दिखावटी प्रदर्शन मन को नहीं भाता। बात शादियों की करें तो पीछे मुड़कर झाँकना होगा। बताएंगे वही, जो हमने और हमारे संगतियों ने भोगा।
बारात आती थी ,तो घर-पड़ौस की ताइयां,भाभियाँ, चाचियाँ,बहनें,मामियां सभी विवाह की तैयारियों में जुट जाती थीं। कहीं कोई कमी न रह जाए। कोई हल्दी पीस रही हैं , कोई दुल्हन के हल्दी लगा रही हैं।कोई आटा छानने में अपने हाथ ,मुँह, कपड़े आटे से साने हुए जुटी हुई हैं।कोई बेसन की उबटन तैयार कर रही है। नाइन उबटन लगा रही है।भाभी काजल लगा रहीं हैं औऱ नेग की माँग कर रही हैं।बारात आने पर सबकी सब पूड़ियाँ बेलने में लग जातीं। बाराती घरातियों को नर्म – गर्म,गोल – मटोल पूड़ियाँ खिलवातीं। रस भरे गीत औऱ गालियाँ भी सुनातीं। ढोलक की थाप पर नाच संगीत में मस्त हो हो जातीं।मानों शादी का पूरा कार्य भार अपने सिर पर खुशी -खुशी उठातीं ।
पर अब कहाँ ? अब तो सभी भाभी , बहनों , मौसियों , फूफियों,पर एक ही काम बचा हुआ है।वह है अपना शृंगार । जितने काम काज की लिस्ट ऊपर बताई गई है, उसे उनके ऊपर मत छोड़ दीजिए। अन्यथा कोई काम नहीं होने वाला है।अब तो उनका अपना शृंगार ही प्रमुख है। पूड़ियों जैसी मोटी-मोटी पूड़ियाँ बेलने के लिए चार -छः मज़दूरिनें रख ली जाती हैं। इन पूड़ियों को तोड़ने के लिए किसी – किसी को चाकू – कैंची की जरूरत पड़ जाए, तो ये विश्व के नवमे आश्चर्य से कम नहीं होगा ।
सब्जी ,रायता ,मिठाइयां, गोल गप्पे , चाऊमीन, दही बड़ा, फ्रूट चाट, रस मलाई, मीसि रोटी, तंदूरी रोटी आदि – आदि तो हलवाई ही तैयार कर देता है।पर पूड़ियाँ खाने की तो बात ही क्या! देखकर ही पेट भर जाता है। उनमें भावज,मामी,ताई, चाची के हाथ का रस जो नहीं होता।उन बेचारियों का मुख्य कार्य
‘ आत्म शृंगार’ जो होता है। घर के शीशे कम पड़ जाते हैं। ब्यूटी पार्लर वाले तो इनके इंतज़ार में सूख रहे होते हैं, उनका उद्धार करने के लिए वे तैयार जो बैठी हैं। पहुँच जाती हैं। और ज्यादा नहीं दो – चार हजार तो ठंडे कर ही आती हैं।यदि स्वयं कामगार हैं तो किसी के बाप की भी सुनना उन्हें गवारा नहीं।कमाती जो हैं! तो गँवाएँ क्यों नहीं? वे कोई नौकर – दासियाँ थोड़े हैं, जो आटा गूँथें या पूड़ी बेलें? वे तो यहाँ एन्जॉय करने के लिए ही पधारी हैं न ! तो अपने एन्जॉयमेंट में कोर कसर क्यों रखें! उन्हें पूरा का पूरा एन्जॉय जो करना है!
सभी रिश्तेदार और घर की महिलाओं को तो अपने ही शृंगार से फुरसत नहीं। क्या करें बेचारी। लगता है दूल्हे ने इन्हीं को पसंद किया है या करने वाला है। बारात भी दुल्हन की नहीं ,इन्हीं की आ रही है।कुछ महत्वाकांक्षी बालाएँ ऐसी भी होती हैं ,कि शायद कोई बाराती लड़का उन्हें भी पसंद कर सकता है। इस प्रकार की धारणा उनके अवचेतन मन में छिपी रहती है।
तब की बात तब गई । अब की बात ही और है।क्या आपने इस बात पर किया कभी गौर है ? सच्चे अर्थों में तब गालियों में रस बरसता था। लोग कहते हैं कि आज के प्रगतिवादी युग में लोग सुधर गए हैं। अब अश्लील गालियाँ नहीं गाई जातीं।अंतर मात्र इतना आया है ,कि जो बातें गालियों में गाई औऱ सुनाई जाती थीं, वे अब हूबहू सच होने लगी हैं। उनका प्रेक्टिकल होने लगा है।इसकी अम्मा उसके साथ,…. इनकी बहना उनके साथ,….. इनकी बीबी किसी और के पास ….वगैरह वग़ैरह । ये सब होने ही लगा गया,तो सुनने वालों को मिर्चें लगना सामान्य – सी बात है! संक्षेप में कहा जा सकता है कि आज उन पूर्वदत्त गालियों का ‘साधारणीकरण’ हो गया है।बस आज की नई सभ्यता में इतना ‘सुधार’ (?) अवश्य हुआ है। ये ‘अब ‘ की बात है। ‘तब ‘बात कुछ औऱ थी। अब तो अनायास ही फ़िल्मी गीत की ये पंक्तियां स्वतः जुबाँ पर आ ही जाती हैं:
‘बीता हुआ जमाना आता नहीं दुबारा।’
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’