मुक्तक – हे मृगनैनी !
हे मृगनैनी ! बाले तेरे; नयन – तीर हैं पैने कितने!
सरि के भीतर लक्ष्य साधतीं; हम हैं हैरां भारी इतने!!
अपनी तरनि बिठाकर हमको; पार लगा दो ‘शुभम’ नदी से,
मत्स्य – बेध मत करो तीर से, हमें बेध डाला है तुमने!१।
दृष्टि हुई एकाग्र तुम्हारी; जल के तल पर मादक बाला!
हिंसा करो नहीं मछली की; घायल उर लख चल मधुशाला,
नाव न खो दे चल पथ अपना; भटक न जाओ सोचा मैंने,
एक दृष्टि जो इधर घुमाओ; बरस रही दृग से ही हाला।२।
तुम्हें देख हे रमणी! बाले!! वन की शोभा लजा रही है,
चली अकेली वन- प्रान्तर में; नाव लिए प्रिय फ़िजा बही है,
लक्ष्य किसी मछली पर तेरा; नहीं डगमगाए तव नैया,
एक पंथ दो काज तुम्हारे; लगती करनी हमें सही है।३।
पथिक नहीं हैं साथ तुम्हारे; अपने सँग में हमको ले लो,
नाव लिए आखेट कर रहीं; आओ जल में सँग में खेलो,
काम नहीं ये तीर चलाना; हे मधुबाले ! हे रसरंगिनि!
आओ ‘शुभम ‘ किनारे बैठें, पंथ अकेली तुम क्यों झेलो?४।
रूप तुम्हारा देख मत्स्य भी; हो जाएँगी मोहित सारी,
तुम बेधड़क बेध डालोगी; कष्ट रहेगा हमको भारी,
पकड़ो चप्पू ‘शुभम’ हाथ में; आओ सरिता पार करा दो,
देख प्रकृति भी रूप कामिनी, वन के पेड़ लताएँ हारी।५।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’